पृष्ठ:लालारुख़.djvu/४८

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चतुरसेन की कहानियाँ "मेरे होश हवास ठिकाने नहीं हैं मालूम होता है मैंने एक बहुत खराब ख्वाब देखा है।" "स्वाद" "ख्वाब ही उसे कह सकते हैं जहाँपनाह, जब कि मेरी सारी लौंडियाँ कहता है कि मैं तमाम रात अपनी ख्वाबगाह में साठी नींद लेती रही हूँ, तो और क्या हो सकता है ?" "मगर वह ख्वाब कैसा था ? "प्रोफ! जहाँपनाह, एक औरत के दरबार में हम और आप दोनों मुजरिम बन कर गये थे और शायद वहाँ से हमें कत्ल का हुक्म हुआ है।" "खुदा की मार, बेगम, मैंने भी ठीक ऐसा ही ख्वाब देखा है।" "तो वह ख्वाब ही था, जहाँपनाह ?" "जब रुस्तम कहता है कि मैं तमाम रात अपने पलंग पर सोता रहा हूँ, तो और क्या हो सकता हैं ?" "शैतान या जिनों की भी तो करामात हो सकती है।" "मैं उसका कायल नहीं हूँ । खुर्रम को हाजिर करो।" एक खोजा दौड़कर बाहर गया, थोड़ी देर में खुर्रम ने आकर आदाब बजाया। "खुर्रम रात तुम कहाँ थे ? "अपनी ख्वाबगाह में, हुजूर " "मगर-मगर तुमने कोई ख्वाब देखा था ?" "याद तो नहीं पड़ता।" "और तमाम रात तुम अपनी ख्वाबगाह से बाहर नहीं नेकले ? ।