पृष्ठ:लालारुख़.djvu/५७

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नूरजहाँ का कौशल तक यह जान गए थे कि दिल्ली के तहत पर जो दुबला-पतला, रसीली आँखोंबाला व्यक्ति सम्राट के नाम से बैठा दोखता है, यह एक सूखी लकड़ी है, जो रूप की धधकती हुई आला से तख्त साहिन धोरे-धीरे जल रही है। नूरजहाँ में रूप था, दर्प था, प्रतिहिंसा थी, क्रोध था, और श्री खी हृदय की दुर्बलता तथा स्त्री-मस्तिष्क का कौशल, साहस प्रत्युत्पन्न भति की अपूर्व प्रतिभा। और जहाँगीर में क्या था ? असाधारण अध्यन, उदारता, प्रेम और सुकुमारता ! निस्संदेह बहू बादशाह के पद के योग्य न था। बादशाह होने के लिए जो कठोरता, रूक्षता, कौशल और दूरदर्शिता मनुष्य में होनी चाहिए, जहाँगीर में न थी। वह एक प्रेम का मतवाला रईस था। वह जिस स्त्री के रूप में अपने यौवन के उदय-काल में दूधा, उसके स्वाद का प्रलोभन वह इस वर्ष व्यतीत होने पर भी, उस रूप के जूठे और किर- किरे होने पर भी, उसमें जहर मिल जाने पर भी, संचरण न कर सका। उसके लिए उसने लोक-लाज, न्याय, अपना पद्- गौरव, साम्राज्य, सभी कुछ संसार की दया पर छोड़ दिया। रूप का ऐसा दयनीय भिखारी शायद ही पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ हो। आगरे के किले में, एक छोटे किन्तु सजे हुए कक्ष में, कार- चोबी काम के चंदोये के नीचे, मसनद पर, सम्राट् जहाँगीर बैठे ऊँघ रहे थे। ज्वलंत रूप-शिखा नूरजहाँ, उनसे तनिक ४ ४६