पृष्ठ:लालारुख़.djvu/५८

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चतुरसेन की कहानियाँ हटकर दाहनी ओर बैठी, संगमरमर की प्रतिमा प्रतीत होती थी। सेनापति महाबतखाँ और महामंत्री आसफउद्दौला सामने अदब से खड़े थे। उनके भागे शाहजादा खुर्रम नीचा सिर किए खड़े थे। प्रातःकाल का समय था, और वह छोटा-सा दरबार सन्नाटे में डूबा हुआ था। बादशाह ने अचानक आँख उठाकर कहा-"महाबतखाँ, हमारे बहादुर सिपहसालार, हम तुमसे बहुत खुश हैं, तुमने तख्त की भारी खिदमत की है, जो शाहजादे को दरगाह में ले आए हो। और शाहजादा, तुम्हारे सब कसूर मात्र किए जाते हैं, और हम दारुसल्तनत में तुम्हारा इस्तकबाल करते हैं। शाहजादा खुर्रम और सेनापति महाबतखाँ ने अदद से सिर झुकाया। इसके बाद शाहजादा घुटने मुकाकर तख्त को चूमने को जरा भागे बढ़े। नूरजहाँ ने एक तीव्र दृष्टि से दोनों व्यक्तियों को धूरकर कहा-“सगर ठहरो, तुम गुनहगार हो, पहले तुम्हारी कैफियत ली जायगी शाहजादे ने हद स्वर में कहा-"मेरी कैफियत ?" हाँ, तुम्हारी कैफियत १५ "किस मामले की ? "तुमने शाहजादे खुशरू का कत्ल कराया है, और अपने वालिद और दीनोदुनिया के बादशाह के खिलाफ साजिश की है। बगावत करके हथियार उठाए हैं।" "मैंने कैफियत जहाँपनाह की खिदमत में लिख भेजी थी, अब उसके दुहराने की जरूरत नहीं है।" "ज़रूरत है ! नूरजहाँ ने दर्प से कहा।