पृष्ठ:लालारुख़.djvu/७७

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दे खुदा की राह पर दी। उस पर दो ईलायचियाँ धरी थीं। उसने मुस्कुराकर कहा "इलाम चियाँ लीजिए। घर में तश्तरी नहीं है।" "घर में तश्तरी नहीं हैं। ये शब्द उसने कैपित कंठ से कहे। बुढे की आँखों में आंसू भर आर! उसने कहा-"तरतरो नहीं है, तो उसका रंज क्यों, बेटी " उनने फिर आँसू पोछकर कहा-"मिहरबानमन्, बिटिया को नजर कुबुल कीजिये, जिससे मेरी और मेरे खानदान की इज्जत बढ़े। मैने इलायचियाँ ले ली! मैं इस फेर में पड़ा, क्या सचमुच बूढ़े का कोई खानदान भी है। रुपया देने के कारण मैं लजित हो रहा था। मैंने कहा- "क्या मिहरबानी करके आप अपने कुछ हालात बतावेंगे, और कोई ऐसा काम भी, जिसे करके मैं आपको कुछ खिदमत बजा लाऊँग बूढ़े ने कहा-"पिछले नौ वर्षों में यह मैं आपसे आज बात कर रहा हूँ, रजिया और मैं इतने दिनों से यहाँ अकेले रहते हैं, हमलोग न किसी से मिलते, न कोई हमसे मिलता है। आपने आज अचानक आकर इस बूढ़े, अन्धे, अपाहिज पर इतनी मिहरबानी की। उसने झुककर मेरे दोनों हाथ चूम लिए। रजिया ने आकर कहा "बाबा आज खाने का क्या होगा बूढ़े ने दो पैसे टेट से निकालकर कहा "सिर्फ ये ही हैं। एक पैसा तुम इस्व मामूल दरगाह पर खैरात दे श्राओ, और एक पैसे के चने ले आओ। आज उन्हीं पर औकात बसर होगी। ६९