छोटे-छोटे गाँवोंके अपढ़ नर, नारी और बच्चे तक अपना मनोरञ्जन कर सकते हैं और साथ ही जानने योग्य अनेक नई-नई बातें जान सकते हैं। यह काम है—चित्रों द्वारा शिक्षा देना। इस विषयपर डी॰ एस॰ सवरकर नामके एक महाशयने एक छोटीसी पुस्तिका लिखी है। उसे भारतीय गवर्नमेन्टहीके "ब्यूरो आफ एजुकेशन" ने छापकर प्रकाशित किया है। इस पुस्तकोंमें थोड़ेमें यह बताया गया है कि बड़ौदा-राज्य किस प्रकार अपनी प्रजाको चित्रों द्वारा शिक्षा देता है—
शिक्षाका यह क्रम खासकर स्कूलके छात्रोंके लिए नहीं। हाँ, किसी गांवमें यदि यह शिक्षा दी जा रही हो तो स्कूलके छात्र भी वहाँ जाकर उससे लाभ उठा सकते हैं। स्कूलोंके लिए तो इस प्रकारकी शिक्षाका प्रबन्ध अलग ही है। शिक्षा-विभागके अधिकारियोंने प्रत्येक देहाती-स्कूलको कार्डोंपर छपे हुए तथा और प्रकारके भी सैकड़ों चित्र दिये हैं। उन्होंने स्टीरियस्कोप नामके यन्त्र भी दिये हैं। इन यन्त्रों की सहायतासे देखनेपर छोटे भी चित्र बहुत बड़े देख पड़ते हैं और उनका प्रत्येक दृश्य खूब अच्छी तरह ध्यानमें आ जाता है। अध्यापक चित्र दिखा-दिखाकर उनके सम्बन्धकी सारी बातें छात्रोंको विस्तारपूर्वक समझाते आर उनकी ज्ञानवृद्धि करते हैं। अँगरेजी सरकार द्वारा शासित किसी भी प्रदेशके स्कूलोंमें इस तरहका कुछ प्रबन्ध नहीं।
बड़ोदा-राज्यमें देहातियोंकी शिक्षाके लिए जो चित्र-प्रदर्शिनी शाखा खुली है उसका सीधा सम्बन्ध बड़ौदेके राजकीय पुस्तकालयसे है। इस शाखाको खुले कोई ८ वर्ष हुए। यह शाखा कार्ड चित्र,