न सिद्ध किया जायगा कि इनके प्रयोगसे वही काम होगा जो विदेशी ओषधियोंसे होता है तबतक विज्ञान और रसायन-विद्याके क़ायल डाक्टर किसीकी बात, सिर्फ कह देनेहीसे, कभी माननेवाले नहीं। इसीसे परीक्षागारमें अर्वाचीन यन्त्रोंकी सहायतासे इनके परीक्षण, पृथक्करण और गुण-धर्म्म निरूपणकी आवश्यकता है। मद्रासके डाक्टर कोमनने बबरी, पुनर्नवा, सेमल, कुर्ची आदि कितनी ही देशज ओषधियोंमें कुछ विशेष रोगोंको दूर करनेके गुण बताये हैं। परन्तु इस तरह उनका सिर्फ बता देना काफ़ी नहीं। रसायनशास्त्रके नियमोंसे उनमें उन गुणोंका होना डाक्टरोंके गले उतार देना पड़ेगा। तभी वे इस कथनपर विश्वास करेंगे, अन्यथा नहीं।
जितने डाक्टरी दवाख़ाने हैं और जितने सरकारी अस्पताल हैं सभीमें विलायती ही दवाएं मिलती और दी जाती हैं। वे बहुत महँगी पड़ती हैं। निजके तौरपर डाक्टरी-पेशा करनेवाले लोग तो दवाओंके दाममें दूकानका किराया, नौकरोंकी तनख्वाह, रोशनी वगैरहका ख़र्च और अपना मुनाफ़ा जोड़कर उनको और भी महँगा कर देते हैं। उनसे सिर्फ वे ही रोगी फ़ायदा उठा सकते हैं जिनके पास चार पैसे हैं। रहे, ख़ैराती अस्पताल, सो उनको दवाओंके लिए सालाना एक निश्चित रक़म मिलती है। उसीके भीतर जो दवाएं वे चाहें मँगा सकते हैं, अधिक नहीं। नतीजा यह होता है कि रोज़ काममें आनेवाली बहुत ही साधारण दवाएँ भी—मसलन कुनैन, मैगनेशिया और अण्डीका तेल भी-कभी-कभी कम पड़ जाता है। क़ीमती दवाओंकी तो बात ही जुदा है। वे तो बहुतही कम नसीब होती हैं।