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पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/१५६

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लेखाञ्जलि


इस दशामें देशज जड़ी-बूटियोंसे इस ढंगसे ओषधियाँ तैयार करना चाहिये जो सस्ती पड़ें। तभी अमीर-ग़रीब सभीको लाभ पहुँच सकेगा—तभी सब लोग उन्हें ख़रीद सकेंगे। भारतवर्ष के सदृश बुभुक्षित और निर्धन देशके लिए कीमती दवाओंका होना, न होना, दोनों बराबर हैं। दवाएं सस्ती तभी हो सकती हैं जब वे अपने ही देशमें अपनी ही जड़ी-बूटियों और लता-पत्रादिसे तैयार की जायँ और बहुत अधिक मात्रामें तैयारको जायँ। अतएव हमें ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये कि उपयोगी जड़ी-बूटियोंको समयपर एकत्र करें, ज़रूरत होनेपर अनाजकी फसलकी तरह उन्हें भी पैदा करें, फिर बड़े-बड़े कारखाने खोलकर उनके कल्क, स्वरस, चूर्ण और बटिकाएं आदि तैयार करके उन्हें सस्ते मूल्यपर बेचें। विदेशसे आनेवाली ओषधियोंके मुकाबलेमें यदि हमारे यहाँ वैसी ही ओषधियाँ पायी जाती हों तो उनके गुण-धर्म्मोंका वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करके उनका विवरण प्रकाशित करना चाहिये। फिर व्यावसायिक ढङ्गपर उनका निर्माण करके विदेशी ओषधियोंके बदले उनके व्यवहारका प्रचार करना चाहिये। इसी तरह धीरे-धीरे सभी उपयोगी जड़ी-बूटियोंसे ओषधियाँ प्रस्तुत करके विदेशी ओषधियोंका उपयोग बन्द कर देना चाहिये। देशहीमें दवाएं तैयार करनेसे विदेशियोंका मुनाफा, जहाज़ और रेलका खर्च और बहुत अधिक मज़दूरी न देनी पड़ेगी। नतीजा यह होगा कि दवाएं सस्ती पड़ेंगी, देशमें ओषधि-निर्माणका व्यवसाय बढ़ेगा और यहाँका लाखों रुपया यहीं रहेगा। अभी तो यह हाल है कि सैकड़ों मन कुचिला, धतूरा, सींगिया और अण्डीके बीज इत्यादि