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लेखाञ्जलि


पञ्चायतके किये हुए फैसलोंकी अपील नहीं। हाँ, यदि कुछ ग़ैर-क़ानूनी कार्‌रवाई हुई हो तो ज़िलेके हाक़िमको दरख़्वास्त देनेपर "नज़रसानी" ज़रूर हो सकती है। और सब हालतोंमें पञ्चायतके फैसले क़तई होते हैं। जजों और हाईकोर्टों के फैसले मंसूख़ हो सकते हैं, पञ्चायतोंके नहीं।

नालिशोंमें डिगरी देनेपर पञ्चायतें,६) सैकड़े सालानाके हिसाबसे, डिगरीकी तारीख़से रुपया अदा होनेतक, सूद भी दिला सकती हैं। वे चाहें तो डिगरीके रुपयेको किस्तोंमें अदा करनेका हुक्म भी दे सकती हैं। डिगरीका रुपया यदि एक महीनेके अन्दर अदा न किया जाय तो ज़िलेके हाकिमको लिखनेपर वह बक़ाया मालगुज़ारीके तौरपर जबरन वसूल किया जा सकता है।

फ़ौजदारीके मुक़द्दमोंमें किये गये जुरमानेको अदा करनेकी मीयाद १० दिन है। यदि उस दरमियानमें रुपया न अदा किया गया तो कलेक्टर या डेपुटी कमिश्नरको लिखनेसे वे लोग उसे भी जबरन वसूल कराकर पञ्चायतमें जमा करा देते हैं।

मुक़द्दमों या नालिशोंके दौरानमें उनका फैसला फ़रीक़ैनकी रज़ामन्दीसे क़सम या हलफ़पर भी किया जा सकता है। यदि फ़रीक़ैन आपसमें कोई समझौता कर लें और मुक़द्दमा या नालिश उठा लेना चाहें तो उनकी ऐसी दरख्वास्तको भी पञ्चायत चाहे तो मंजूर कर सकती है।

मुक़द्दमा सुनते वक्त अगर पञ्चायतको यह मालूम हो जाय कि मामला सङ्गीन है। अतएव जो सज़ा वह दे सकती है वह मुजरिमके