सुख भोगेगा कौन? इन सज्जनोंमेंसे अनेक ऐसे निकलेंगे या व्यर्थ देहातमें नहीं घूमे, जिन्हें किसानोंकी दुर्गतिका बहुत-ही कम ज्ञान है और किसानोंके प्रतिनिधि बननेपर भी जिन्होंने अबतक भी क़ानून-लगान और क़ानून-काश्तकाली वग़ैरहका एक बार भी पारायण नहीं किया। इस दशामें इनसे किसानोंको लाभ पहुँचनेकी बहुत कम आशा है।
इस सूबेसे कितने ही अख़बार हिन्दी, उर्दू और अँगरेज़ीमें निकलते हैं। परन्तु कुछ-बहुतही साधारणसे लेखोंके अतिरिक्त, इस सम्बन्धमें कुछ भी विशेष चर्चा नहीं हुई। यह और भी दुःखकी बात है। प्रजाके प्रतिनिधि बननेका दावा करनेवाले इन पत्रोंकी यह असावधानता अथवा असमर्थता बहुतही सन्तोषजनक है। प्रान्तके ३/४ अंशका मरना-जीना जिन कानूनोंपर अवलम्बित है उन्हीं के सम्बन्धकी चर्चा न करना, अपने कर्तव्य की बहुत बड़ी अवहेलना करना है।
इन सारे दुखदर्दोंको दूर करने का सबसे अच्छा इलाज है किसानोंका सङ्गठन। ज़मींदार और तअल्लुकेदार शिक्षित हैं, श्रीमान् हैं और शक्तिमान् भी हैं। उन्हें सङ्गठनकी उतनी ज़रूरत न थी, पर उन्होंने भी, सूबे अवध और सूबे आगरा, दोनों ही, अपना सङ्गठन कर लिया है। इसी सङ्गठनके कारण अवधके क़ानून-लगानमें वे लोग बहुत-कुछ अपनी मनमानी तरमीम करा सके हैं। अब आगरेके क़ानून-काश्तकारीके मसविदेके सम्बन्धमें वे आगराप्रान्तमें भी जगह-जगह मीटिंग कर रहे हैं और जो दो-एक बातें मसविदेमें किसानोंके लाभकी हैं उनपर प्रतिकूल प्रस्ताव पास कर रहे हैं। मसविदा कौंसिल-