पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/१९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८९
दण्ड-देवका आत्म-निवेदन

"Every woman is at heart a rake" इस उक्ति को सुनकर कुछ सम्माननीय महिलाएं बेतरह कुपित हो उठीं। एक दिन उन्होंने कविको अपने कब्ज़े में पाकर उसे सुधारना चाहा। तब यह देखकर कि इनके पञ्जेसे निकल भागना असम्भव है, कविने कहा—"मैंने ज़रूर अपराध किया है। अतएव मुझे सज़ा भोगनेमें कुछ भी उज्र नहीं। पर मेरी एक प्रार्थना है। वह यह कि उस उक्तिको पढ़कर जिस महिलाको सबसे अधिक बुरा लगा हो वही मुझे पहले दण्ड दे"। इसका फ़ैसिला कोई स्त्री न कर सकी। फल यह हुआ कि कवि पिटनेसे बच गया।

रूसमें भी हमारा आधिपत्य रह चुका है। वहाँ तो सभी प्रकारके अपराध करनेपर साधारण दण्ड या कशादण्डले प्रायश्चित कराया जाता था। क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या बालक, क्या वृद्ध, क्या राजकर्मचारी, क्या साधारण जन सभीको, अपराध करनेपर, हमारा अनुग्रह ग्रहण करना पड़ता था। किसान तो हमारी कृपाके सबसे अधिक पात्र थे। उनपर तो, जो चाहता था वही, निःशङ्क और निःसङ्कोच, हमारा प्रयोग करता था। हमारा प्रसाद पाकर वे बेचारे चुपचाप चल देते थे और अपना क्रोध अपनी पत्नियों और पशुओंपर प्रकट करते थे। रूसके अमीरों और धनवानोंसे हमारी बड़ी ही गहरी मित्रता थी। दोष-दमन करनेमें वे सिवा हमारे और किसीकी भी सहायता, कभी भूलकर भी, न लेते थे। उनका ख़याल था कि अपराधियोंको अधमरा करनेके लिए ही भगवान्‌ने हमारी सृष्टि की है।