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पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/२६

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लेखाञ्जलि


हैं। उनमेंसे सबसे अधिक सरल देहधारी जीवको आमिवा कहते हैं।

आमिवा प्राणि-जगत् की आदिम और निकृष्टतम प्रजा है। वह बड़ा ही अद्भुत जीव है। उसके एक भी अवयव नहीं होता। उसके विषयमें कोई यह नहीं कह सकता कि उसका आकार क्या है। वह गोल होनेपर भी लम्बा होता है। हस्तपाद-विहीन होनेपर भी वह अनेक पाद और अनेक हस्तधारी होता है। निर्मुख होनेपर भी मुखमय कहा जा सकता है। यद्यपि उसके पेट नहीं, तथापि उसके उदरयुक्त होनेमें सन्देह नहीं। उसके नासा नहीं, तिसपर भी उसका सर्वांश नासिकाका काम देता है। मतलब यह कि जिस चेतनाविशिष्ट धातुसे आमिवाका शरीर बना होता है उसका कोई निर्दिष्ट आकार तो नहीं, पर काम वह सभी अवयवों के देता है।

खुर्दबीनमें आंख लगाकर देखनेसे मालूम हुआ है कि आमिवा स्थान-परिवर्तन भी करता है। उसके पैर, पंख, डैने आदि कुछ भी दृग्गोचर नहीं, परन्तु चलता वह अवश्य है। अपने अद्भुत आकार का सङ्कोचन, प्रसारण और परिवर्तन करके आगे बढ़ता या पीछे हटता है। यही उसका चलना है यही उसकी गति है।

आमिवाको काहिली या निष्क्रियता से घृणा है। वह बड़ा ही क्रियाशील प्राणी है और कुछ-न-कुछ किया ही करता है। कभी वह सिकुड़ता, कभी फैलता, कभी लम्बा हो जाता और कभी वर्तुलाकार बन जाता है। कभी वह चक्राकार धारण कर लेता है और कभी तारकाओंके जैसे रूपमें परिवर्तित हो जाता है। वह इतना मायावी