सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६
लेखाञ्जलि


जितना कि साढ़े तीन मनके वज़नवाले ५० करोड़ मनुष्योंका होता है। इस बढ़तीका कुछ ठिकाना है!

ये मक्खियाँ वृक्षों और पौधोंके पत्ते,फल-फल और उनके नवीन-नवीन अङ्कुरों को खाकर अपना जीवन-निर्वाह करती हैं। यदि ये सारी मक्खियां एक साल भी जीवित रहें, तो देशभरमें कहीं कोई उद्भिज वृक्ष और पौधे न रह जायँ। पर, प्रकृति-देवीने इनके नाशका भी उपाय नियत कर दिया है। सब प्रकारके जीव-जन्तु, कीट-पतङ्ग और पक्षी आदि इन मक्खियोंको अपना आहार बनाते हैं। इसप्रकार उनके द्वारा इनकी करोड़ोंको संख्या विनष्ट हो जाती है।

वार्ड साहबने इन मक्खियों के एक प्रबल शत्रुका भी वर्णन किया है। वह एक प्रकारकी बर्र-जातिका कीड़ा है। परन्तु उसका आकार बर्र के आकारसे बहुत छोटा होता है। वह उन हरे रंगकी मक्खियोंका किस प्रकार नाश करता है, सो भी सुन लीजिये—

ये कीड़े अण्डे देनेके समय हरे रंगकी मक्खियोंको ढूँढ़ते फिरते हैं। मक्खियोंको पाकर ये उनमें से एकके ऊपर बैठ जाते हैं। फिर ये उस मक्खीके पेटमें अपनी गर्भनली डालकर उसमें अपना अण्डा रख देते हैं। अण्डे के साथ ही एक प्रकार का विषैला रस निकलकर मक्खी के पेटमें भर जाता है और दो-चार दिनके बाद ही वह उसे मार डालता है। इस प्रकार मरी हुई मक्खियां पेड़ों और पौधों के पत्तों और डालियोंपर पड़ी रहती हैं। कुछ समय बाद बर्र-जातीय कीड़ेका अण्डा फट जाता है और उसमें से बच्चा निकलकर उस हरी मक्खी का मांस खाता रहता है । बड़ा होने पर वह उड़ जाता है।