पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/५

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निवेदन

ज्ञता और निरक्षरता ही अनेक दुःखोंकी जननी है। साक्षर होने ही से मनुष्यको ज्ञानप्राप्ति हो सकती है अथवा यह कहना चाहिये कि साक्षरता ही उसकी प्राप्ति का प्रधान साधन है। यह साक्षरता ही, आजकल की भाषामें,शिक्षा के नामसे अभिहित है; क्योंकि जितने शिक्षालय या स्कूल हैं उनमें अक्षरों ही की सहायतासे शिक्षाका दान दिया जाता है। शिक्षा की प्राप्ति अपनी मातृभाषा के द्वारा जितनी सुलभ हो सकती है उतनी पर-भाषा के द्वारा नहीं। यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है। इसमें अपवाद के लिए जगह नहीं। अतएव अपनी भाषाका ज्ञान प्राप्त करना और अपनी भाषा को उन्नत करना प्रत्येक मनुष्यका परम कर्तव्य होना चाहिये।

हमलोगों की मातृभाषा हिन्दी है। सौभाग्य से, कुछ समयसे, वह उन्नति की ओर, धीरे-धीरे, अपना पादक्षेप कर रही है। बीस-पच्चीस वर्ष पहले वह बड़ी ही विपन्नावस्था में थी। उस समय उसकी ओर बहुत ही कम हिन्दी-भाषा-भाषियों का ध्यान था-उसकी उस दयनीय दशापर इने- गिने कुछ ही सत्पुरुषों को दया आती थी। लोग उसे भूले हुए थे। इस दशामें उन्हें जागृत करने और उन्हें उनके कर्तव्य की याद दिलानेकी बड़ी आवश्यकता थी।

मलेरिया अर्थात् मौसिमी बुखार, दूर करनेके लिए कुनैन से बढ़कर और कोई दवा नहीं पर वह होती है महा कटुं। अतएव