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पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/५७

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सौर जगत्‌की उत्पत्ति

स्थानपरिवर्तन न कर सकेगा। वह केवल उसी जगह रहकर चक्कर लगाता फिरेगा। यही गति कुण्डलाकार कही जाती है। पर इसके द्वारा जगत्‌की उत्पत्ति नहीं हो सकतो। इधर परमाणु भी स्वयं उद्यमहीन अतएव निश्चेष्ट हैं; उनमें स्वयमेव कुछ करनेकी शक्ति नहीं। सृष्टिकी इस अवस्थामें परमात्माने परमाणुओंको एक गुण देनेकी कृपा की। इस गुणको हम आसक्ति कह सकते हैं।

इस आसक्तिकी प्रेरणासे सारे जड़ कुण्डल घूमते-घूमते एक दूसरेकी तरफ खिंचने लगे। जड़वादी वैज्ञानिकोंका मत है कि यह आसक्ति और कुछ नहीं, कुण्डलाकार-गतिका फल या परिणाम-मात्र है। इससे यह सूचित हुआ कि कुण्डलाकर गतिकी कार्य-कारिणी शक्ति एकमात्र आसक्तिपर अवलम्बित। इस आसक्तिके द्वारा सारे जड़ कुण्डल घूमते-घूमते एक दूसरेकी तरफ आकृष्ट होने लगे। वे ज्यों-ज्यों समीप आते गये, त्यों-त्यों परस्पर संलग्न होते गये। इस तरह जब बहुतसे परमाणु संलग्न हो गये तब उनसे एकएक अणुकी उत्पत्ति होने लगी। यहाँपर एक विशेषता हुई। परमाणु तो सब एक ही जातिके थे। पर संलग्नता होनेपर जो अणुओंकी सृष्टि हुई उनमें भिन्नता आ गई। यह बात संलग्नताके न्यूनाधिक्यके कारण हुई। इसीसे जड़ कुण्डलोंकी स्थितिमें भिन्नता और उनके समावेशमें विचित्रता हो गई। अणुओंमें परमाणुओंकी भिन्न-भिन्न स्थितिके वैचित्र्यके कारण ही अणुओंकी जातियाँ भिन्न-भिन्न प्रकारकी होती हैं।

भिन्न-भिन्न परमाणुओं की आसक्तिक समुदायके द्वारा ही पणुओं