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लेखाञ्जलि

किसी तरल या लचीले पदार्थको आप घुमाइए। यदि आप घुमानेका वेग थोरे-धीरे बढ़ाते जायँगे तो देखेंगे कि उसका मध्य-भाग क्रमशः फूलता जाता है और अन्तको गोलक छोड़कर अलग होने—दूर जाने की—चेष्टा करता है। इसी नियमके अनुसार नीहारिका-खण्ड जितने ही अधिक घनीभूत होने लगे उतने ही वे अपनी गोलाकार गतिके कारण क्रमशः गोल होने लगे। इस समय भी जड़-जगत्‌में ऐसे नीहारिका-खण्ड देख पड़ते हैं जो अभीतक इतने घने नहीं हुए कि एक अखण्डित पदार्थके रूपमें घूम सकें।

जब नीहारिका-निचय एक अखण्डित पदार्थ के रूपमें घूमने लगा तब उसमें एक केन्द्र, अर्थात् स्थान-विशेष या बिन्दु-विशेषकी उत्पत्ति हुई और उसके घने होनेका क्रम उसी केन्द्रकी तरफ़ प्रबल होने लगा। इसी कारण कैन्द्रिक अर्थात् केन्द्र-सम्बन्धी आकर्षणकी उत्पत्ति हुई। यही कैन्द्रिक आकर्षण इस समय माध्याकर्षणके नामसे प्रसिद्ध है। वास्तवमें यह माध्याकर्षण भिन्न-भिन्न अणुवोंके आकर्षणकी समष्टिके सिवा और कुछ नहीं है। परमाणुओंकी आसक्तिका यही परिणाम है। इसीसे सारे अणु केन्द्रकी तरफ खिंचकर और उसे घरकर उसके चारों तरफ चक्कर लगाते हैं। इस तरह चक्कर लगानेसे नीहारिकायें जितनी ही घनी होती हैं उतनी ही, लचीले गोलेकी तरह, बीचमें फूल उठती हैं। अन्तको जब उस फूले हुए अंशमें गतिका वेग इतना प्रबल हो जाता है कि वहाँका जड़ अंश, अपनी जड़ताके कारण, गतिके आगे चलनेकी चेष्टा करता है और उस चेष्टाके वेगसे कैन्द्रिक आकर्षणकी मात्रा बिखर जाती है तब वह फूला हुआ अंश दूर छँटकर