मरी । कवष और द्रुह्यु वंशी डूब मरे। अनु और द्रुह्युओं के छियासठ सेनानायक और छ: हजार वीर सेनापति खेत रहे । राजा वार्चिन के एक लाख पांच सौ सैनिक मारे गए। इस युद्ध में सात दुर्ग सुदास के हाथ लगे । युध्यामधि का उसने युद्धस्थल में वध किया । अब शिग्रु और चक्षु ने अधीनता स्वीकार कर ली । भृगु लोग सर्वथा परास्त हो गए । तुर्वशु , और याह्व का अहंकार चूर्ण हुआ । कुछ नाहषों ने कर देना स्वीकार किया । पुरोदास, भृगु और द्रा ने अधीनता स्वीकार कर ली । इस युद्ध में इक्कीस जातियों के वैकर्ण पराजित हुए । सुदास ने शत्रुओं के सात दुर्ग और जीती हुई साम्रगी त्रस्यु को दे दी । अज , शिग्र और चक्षु ने सुदास को कर दिया । प्रिव के पचास हजार मनुष्य मारे गए। इस युद्ध में धनुष , बाण, खड्ग , ढाल , कवच, शिलाप्रक्षेपक और आग्नेयास्त्रों का प्रयोग हुआ । बरछों और भालों का भी प्रयोग हुआ । निशित बाण चलाए गए। इस युद्ध को जय कर सुदास ने पूर्व की ओर बढ़कर भेद से युद्ध किया । भेद के साथ अज , शिग्र और पक्थों ने यमुना के कछार में सुदास का सामना किया , परन्तु पराजित हुए । भेद का भारी खजाना लूट लिया गया और किले छीन लिए गए । युद्ध की समाप्ति पर विजयोत्सव हुआ , जिसमें पराशर , वशिष्ठ और सत्ययात को बहुत - सा दान दिया गया । देववात अभ्यावर्तिन चायमान ने यव्यावती नदी पर वृचीनवों को हराया तथा सृञ्जय को तुर्वशु का देश दिया । चायमान ने बीस घोड़े तथा दासियां भारद्वाज को दीं । ये चायमान मनुर्भरतों में पृथुवंशी थे। दिवोदास ने भी भरद्वाज को धनी बना दिया । सृञ्जय के पुत्रों ने भी भरद्वाज को दान -मान से सत्कृत किया । इस प्रकार यह उस काल का सबसे बड़ा युद्ध समाप्त हुआ, जिसका बड़ा भारी सांस्कृतिक प्रभाव आर्यों और आर्यावर्त पर पड़ा । वशिष्ठ ने इस युद्ध में सुदास की बहुत सहायता की थी । सुदास ने भी उन्हें बहुत धन, गौ - दान दिया । परन्त किसी कारण से वशिष्ठ उनसे नाराज होकर पौरव संवर्ण के पास चले गए। संवर्ण को एक बार सुदास हरा चुके थे। वही वैर उभाड़कर वशिष्ठ उसे सुदास पर चढ़ा लाए। तब संवर्ण ने युद्ध क्षेत्र में सम्मुख युद्ध में सुदास का वध किया । अब उत्तर पांचाल में अजमीढ़ के पुत्र बृहदश्व ने दक्षिण पांचाल का नया राज्य स्थापित किया। भरत के पौत्र सहोत्र ने काशी में एक पौरव राज्य की स्थापना की थी , जिसे दुर्दम हैहयों ने आक्रान्त किया । पीछे प्रतापी प्रतर्दन तालजंघ के पुत्र वीतिहव्य को हैहयों की राजधानी में घुसकर हराया । पीछे वीतिहव्य ऋषि हो गए । प्रसिद्ध वेदर्षि गृत्समद् वीतिहव्य के दत्तक पुत्र हुए । प्रतर्दन राम के राज्यारोहण में भी आए थे। प्रतर्दन के पुत्र वत्स ने प्रतिष्ठानपुर के कौशाम्बी प्रान्त को अपने राज्य में मिला लिया। काशी की शाखा में सुहोत्र के पुत्र बृहत् ने कान्यकुब्ज में पौरव राज्य की स्थापना की । इन्हीं के पुत्र जह्र थे, जिन्हें प्रतापी सूर्यवंशी मान्धाता की पौत्री ब्याही थी । यदु को चम्बल, बेतवा और केन वाला प्रदेश मिला था । इससे दो पुत्र हुए - क्रोष्टु और सहसजित् । इनके दो वंश चले - पहले से यादव वंश, दूसरे से हैहय - वंश। वे यज्ञ नहीं करते थे तथा उन्होंने असुरों से विवाह- संबंध स्थापित किए थे। यदुवंशी हर्यश्व मधु दैत्य का दामाद हुआ । पीछे इस वंश में शशिबिन्दु प्रसिद्ध यज्ञकर्ता हुआ। इसके पुत्र ज्यामघ ने दक्षिण में ऋक्ष पर्वत पर मृत्तिकावती बसाकर राजधानी बनाई। हैहयों ने अपने भाई - बन्द यादवों से उनके पैतृक राज्य छीनकर साहंजनी और माहिष्मतीपुरी बसाई। पीछे सूर्यवंशी शर्यात भी इन्हीं में मिल गए । इसके बाद भार्गवों
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