पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१३४

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आपका अभिवादन करता हूं, और आपकी पुत्री कमल -नयनी , पुष्पलतिका - सी इस बाला का अभिनन्दन करता हूं । " न “ स्वस्ति , पौलस्त्य रावण, तेरा यश मैंने सुना है। तेरा शौर्य भी मुझे अविदित नहीं है, परन्तु तू क्लिन्न - क्लान्त क्यों है? " " भाग्यदोष से मैं प्रियजन-विछोह से दुखित हूं , मैं बड़ा भाग्यहीन हूं । " “ पौलस्त्य, इस गन्धर्व- लोक में तेरा स्वागत है । प्रसन्न हो ! यह मेरी प्राणाधिका पुत्री चित्रांगदा है। यह तेरा मनोरंजन करेगी । तेरे प्रियजन -विछोह से विदग्ध हृदय को आप्यायित करेगी । इसे मैं तुझे देता हूं। तू , समिधा ला , अग्न्याधान कर। रावण ने समिधा ला अग्न्याधान किया । गन्धर्व ने अग्नि की साक्षी में अपनी अनिन्द्य सुन्दरी कन्या रावण को प्रदान कर दी । कन्या रावण को देकर गन्धर्वराज चला गया । चित्रांगदा पुष्पभार से लदी लता - सी लज्जावगुण्ठिता रावण के पास खड़ी रही । रावण ने कहा - “ कह कल्याणी, अब तेरा क्या प्रिय करूं ? " चित्रांगदा ने कहा - “ हे नरशार्दूल , अब खिन्नता त्याग दीजिए। आपको किस प्रिय का विछोह हुआ , मुझसे कहिए और किस सेवा से आप संप्रहर्षित होंगे , यह बताइए। " रावण ने कहा - “विचित्र संयोग है, प्रिय ! प्रत्येक दुःख की चिकित्सा है । अन्धकार के बाद प्रकाश है। निराशा के बाद आशा है । मैं तो तेरे दर्शनों ही से सम्पन्न हो गया । तेरे सान्निध्य का सुख अवर्णनीय है । " “ वह सामने एक सरोवर है। चलिए, वहां आप विश्राम करें । वहीं मेरी सखियां भी हैं । आपको अर्घ्य-पाद्य से सत्कृत करेंगी। " रावण ने सरोवर - तट पर जाकर देखा – उसमें नीलमणि - सा स्वच्छ जल भरा है । बड़े- बड़े रक्तकमल खिल रहे हैं , उन पर भौंरे गुआर रहे हैं । लता - पुष्षों से स्थान सुशोभित है । वह बाला एक लता - मण्डप में पुष्पों के एक बिछौने पर बैठ गई । उस समय उसकी ऐसी शोभा प्रतीत हुई मानो शरत् काल के मेघों पर विराजमान चन्द्रमा की कला हो । उसकी इस दिव्य सुषमा को देखकर रावण आश्चर्य और उत्कण्ठा से भौचक रह गया । इसी समय उसे प्रतीत हुआ कि मानो आकाश से उतरता हुआ तेजपुंज आ रहा है । उसने सुन्दरी चित्रांगदा से पूछा - “प्रिये , यह क्या चमत्कार है ? " चित्रांगदा ने कहा - “ आर्यपुत्र , ये सब विद्याधरी , गन्धर्वी, अप्सराएं , नाग - कन्याएं मेरी सखियां हैं । ” वे सब अपने हाथों में कोई ताजा कमल - फूल , कोई गन्ध -पराग, कोई अंगराग, कोई वीणा - मृदंग षट्खंजरीक , कोई गोरोचन , कोई मयूरपुच्छ लिए वहां आ पहुंचीं। उस सजीव रूप - सागर को देख रावण विमूढ़ हो गया । उन सुन्दरियों के बीचघिरी हुई चित्रांगदा नक्षत्रों के बीच में चन्द्रकला के समान सुशोभित होने लगी । वह उत्फुल्ल शतदल कमल के समान प्रसन्नवदना, चलचंचल मकरन्द लोलुप भ्रमरलोचना , हंसगामिनी , कमल- गन्धा चित्रांगदा गन्धर्वराज्य - कन्या , काम - संजीवनी - सी प्रतीत हो रही थी । उसके लहरों के समान मनोहर त्रिवलियुक्त मन्दोदर को देख रावण इस प्रकार चलायमान हो गया जैसे समुद्र चन्द्रकला को देख चलायमान हो जाता है । रावण अपने चारों ओर कपूर चन्दन तथा अगर के वृक्षों से आती हुई सुगन्ध से मत्त हो गया । उसने आनन्दातिरेक से विभोर होकर चित्रांगदा से पूछा - “प्रिये, इस मनोरम स्थान का नाम क्या है? ” चित्रांगदा