पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१७०

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गया । " " नहीं पुत्र , आतिथ्य ही तो राजकुल का दूषण हो गया। " “ किन्तु कैसे ? ” " हमने उसका लंका में भव्य स्वागत किया। " “ सुष्ठु! ” " राज - महालय और अन्तःपुर में उसे आत्मीय की भांति प्रतिष्ठित किया । " “ आप राजकुल की मर्यादा जानते हैं , आपने राजकुल की मर्यादा के अनुकूल ही किया। " “ किन्तु राजकुल की मर्यादा भंग हो गई। " “किसने भंग की ? " " इसी अतिथि चोर ने ? " " क्या कहते हैं आप मातामह ? " " वह चोर मेरे भाई माल्यवान् की पुत्री , तेरी बहन कुम्भीनसी में अनुरक्त हो “ सुपात्र है मधु दैत्य । उसे कुम्भीनसी देकर हमारा कुल सुपूजित होगा । " “ यह बात ही न रही पुत्र! " " कैसे, क्या हमारी बहन कुम्भीनसी मधु को नहीं चाहती ? " “ वह तो उसे हरण कर ले गया । " " क्या मधु? " रावण के दोनों नेत्र जल उठे । उसके नथुने फूल गए । उसने विषधर सर्प की भांति फुफकार मारकर कहा - " क्या आपके रहते मातामह ? " । __ “ पुत्र , मैं तो भ्रम ही में रहा। फिर उस समय मैं एक गुरुतर राज - काज से द्वीप समूहों में चला गया था । " “ और भाई कुम्भकर्ण ? " “ वह सो रहा था । " “विभीषण ? " “ वह आकण्ठ जल में तप कर रहा था । " “ पुत्र मेघनाद? " “ यज्ञ में दीक्षित बैठा था । " “ मन्त्रिगण , राक्षस योद्धा, हमारे सेनापति ? " " उन्होंने विकट युद्ध किया , पर मधु ने सभी को परास्त किया । वह हमारे सुपूजित राजकुल के मस्तक पर लात मारकर बलात् हमारी कन्या का हरण कर ले गया , पुत्र ! " __ “ वह हमारे सुरक्षित अन्तःपुर से बलपूर्वक हमारी बहन कुम्भीनसी को हरण कर ले गया , आप यह कहना चाहते हैं ? " " हां , पुत्र ! " “ और भी कुछ है? " " हां ,विद्युज्जिह्व! " “विद्युज्जिह्व? कौन है वह? " “ एक तरुण दानव है । "