“निस्सन्देह । ” " तब तो मुझे भय है कि तू जीवन को प्यार नहीं करती। " " ऐसा क्यों ! " " हमें जैसे अपना सत्य देखना है दूसरों के प्रति , उसी भांति दूसरों का अपने प्रति भी तो ! " “ किन्तु प्रत्येक व्यक्ति को अपने संबंध में निर्णय करने का अधिकार है। " “ अवश्य ही है। " " तो मैं चाहती हूं कि मैंने जो निर्णय किया है, उसमें रक्षेन्द्र बाधा न डालें । " " बाधा नहीं डालना चाहता । मैं यह देखना चाहता हूं कि तू अपने जीवन को क्या वास्तव में प्यार करती भी है ? तू विद्युज्जिह्व को प्यार करती है तो तू उससे विवाह कर; किन्तु वह उपयुक्त पुरुष है यह अवश्य देख । ” "रक्षेन्द्र क्या कहना चाहते हैं ? ” " सुन, क्या तू किसी पुरुष के साथ भाग जाना पसन्द करेगी? “किसी के साथ मैं क्यों भागूंगी ? मैं विद्युज्जिह्व के साथ विवाह करूंगी। " “विवाह के लिए जल्दी क्या है ? अभी तू किसी पुरुष के साथ भाग जा । " " क्यों भला ? " "स्त्रियां प्रायः किसी प्रेमी के साथ भाग जाया करती हैं । कोई विवाह के पहले भागती है, कोई पीछे। मेरा विचार है, पीछे भागने की अपेक्षा पहले ही भाग जाना अच्छा है । " “ वाह ! " “ प्रजंघ को देखा है तूने ? " “ कौन है वह ? " "मेरी सेना का एक तरुण गुल्मपति है। तेजस्वी और मेधावी -चीते की भांति चंचल । वह उर नगर के अभिजात दैत्युकल का है। " " तो उससे मुझे क्या ? " " तु उसके साथ कुछ दिन के लिए भाग जा । इससे तुझे लाभ होगा । दनिया की ऊंच -नीच का ज्ञान हो जाएगा । तेरा मस्तिष्क और हृदय विस्तृत हो जाएगा । यह भी सम्भव है कि तू उसे ही प्यार करने लगे और उसी से विवाह कर ले । ” ___ “ परन्तु मैं तो विद्युज्जिह्व को प्यार करती हूं । " “ ठीक है, तो तू अभी प्रजंघ के साथ भाग जा । प्रेम - संबंधी अपने अनुभव पुष्ट कर फिर लौटकर विद्युज्जिब से ब्याह कर । " ___ " अच्छी दिल्लगी है ! ” । " कदाचित् तूने इसकी उपयोगिता पर ध्यान नहीं दिया । विद्युज्जिह्व से पहले तो तेरा किसी पुरुष से सम्पर्क ही नहीं हुआ। विद्युज्जिह्व को भी तू सर्वतोभावेन नहीं जानती । बहुत कम तेरा उससे मिलना हुआ है। फिर तू उसके व्यक्तित्व को किसी अन्य पुरुष से कैसे तौल सकती है ? प्यार का पात्र कौन है - इसका चुनाव कैसे कर सकती है ? इसी से दूसरे पुरुष का भी तो अनुभव प्राप्त कर। फिर उससे विद्युज्जिह्व के सौष्ठव को तौल । "
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