अविचल भाव से स्थिर खड़ी है। मय ने देखा, उसका सौंदर्य और आकर्षण इन चौदह वर्षों में तनिक भी म्लान नहीं हुआ है । वैसा ही उसका उठा हुआ यौवन है , वैसा ही तपाए सोने का सा स्वर्णगात है, वैसी ही नीलमणि - सी उसकी देह - यष्टि है । अपने पति को चौदह वर्ष बाद इस प्रकार खड्गहस्त सम्मुख खड़ा देखकर वह तनिक भी विचलित नहीं हुई, न उसने अपने बचाव की ही कुछ चेष्टा की । जरठ मय की मुट्ठी से खड्ग स्रस्त होने लगा। वह उस मनोहर रमणीय वक्ष में खड्ग नहीं घुसेड़ सका । उस कोमल शोभावती रमणी पर निर्दय वार न कर सका। किस प्रकार उसने उसके नवविकसित यौवन के साथ कभी रमण किया था - संसार को भूलकर ! आरोपित कर दिया था उसी में अपने को ! उसके लिए नगर बनाया था , हेम -हर्म्य बनाया था , उसे प्यार किया , उससे उसने एक पुत्री और दो पुत्र उत्पन्न किए थे। आज चौदह वर्ष से वह उसके वियोग में मारा -मारा फिर रहा था । उसके बिना उस विरागी को संसार सूना दीख रहा था और आज जैसे उसकी खोई निधि मिल गई थी । अतीत जीवन में मधुर दृश्य उसके नेत्रों में घूम गए । उसने देखा आज वह पहले से भी अधिक आकर्षक , मनोहर और सुन्दरी है । अब भला वह कैसे उसका वध कर सकता था ! हाथ में खड्ग लिए वह देर तक एकटक हेमा को देखता रहा। फिर उसने पूछा - “ अब तू क्या चाहती है ? " " जो तम चाहो। " " तू क्या करेगी ? " “ जो तुम कहो । " “ कहां रहेगी ? " “ जहां तुम रखोगे । " “ यदि मैं तुझे मुक्त कर दूं? " " अब , इस अभियान के बाद ? " " तू जहां चाहे चली जा , मुझसे तुझे क्या ! " “फिर इतना रक्त क्यों बहाया ? " “ यह तो ठीक ही किया । " " तो अब फिर मैं कहां जाऊं ? " “ क्या इन्द्रद्युम्न तुझे मेरे हर्म्य से भगा ले गया था ? " " नहीं, मैं स्वेच्छा से उसके साथ गई थी । " " इसमें दोष किसका है, तेरा या इन्द्रद्युम्न का ? " “किसी का भी नहीं! ” " तो तू अपने उस गर्हित कार्य के लिए लज्जित नहीं ? " " लज्जित नहीं हूं। ” " क्या मैं तुझे प्यार नहीं करता था ? " “ करते थे। " “ और तू? " “ मैं भी । "
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