पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

74. रत्न कूट द्वीप सुभद्र वट कानन में मारीच राक्षस का मित्र शबरों का राजा पुलिन्दक रहता था । पुलिंदक जल- दस्युता का धंधा करता था । उसके बहुत - से सेवक धनुष - बाण लिए समुद्र में आते- जाते जलयानों को लूट लेते तथा लूटे हुए स्वर्ण-रत्न अपने स्वामी पुलिन्दक के चरणों में ला धरते थे। इस प्रकार लूटे धन से वह अत्यन्त सम्पन्न और धनी हो गया था । उसका रंग एकदम काला, नेत्र लाल तथा अंग पर बड़े- बड़े बाल थे। उसकी भौंहें बहुत मोटी, मूंछे कड़ी तथा दांत तेज थे। वह शरीर से एक सांड़ के समान बलवान् था । उसके सेवक शबर लोग भी बड़े क्रूर और साहसी थे। दस्यु - वृत्ति में वे परम चतुर थे। उनके भय से बड़े- बड़े प्रवाहक भी समुद्र में निर्विघ्न यात्रा करने का साहस नहीं कर सकते थे। विद्याधरों का राजा उदयवर्धन पुलिन्दक का मित्र था । उदयवर्धन भी बड़ा सम्पन्न और धनी था । धनुष्कोटि के निकट ही उसका नगर था । जहां वह बड़े ठाठ से अपनी सुन्दर रमणियों के साथ आनन्द -विहार करता था , इन दोनों पुरुषों की मित्रता की कहानी भी बड़ी अद्भुत है । एक बार उदयवर्धन मृगया के लिए वन में गया था । वहां शबरों ने उसे घेरकर लूट लिया और उसे बांधकर शिश्नदेव के सम्मुख बलि देने को ले आए। पर जब उसे यूप में बांध वे उसका वध करने लगे, तभी पुलिन्दक आ गया तथा राजा का कमनीय गौर वर्ण , अल्प वय देख तथा उसका परिचय पाकर उसने उसे मुक्त कर दिया तथा अग्नि की साक्षी में मित्रता भी कर ली । पुलिन्दक से मित्रता स्थापित कर राजा उदयवर्धन अपनी नगरी में चला आया । पुलिन्दक ने उसे बहुत - से बहुमूल्य गजमुक्ता और कस्तूरी उपहारस्वरूप दिए । परन्तु संयोग की बात ऐसी हुई कि कुछ काल बाद पुलिन्दक को दस्यु वृत्ति करने के अपराध में राजा उदयवर्धन के सेवकों ने पकड़ा । नगर - पाल ने उसे शूली पर चढ़ाने की आज्ञा दे दी । परन्तु जब राजा ने यह सुना तो उसने प्रकट में तो उस चोर को मित्र नहीं व्यक्त किया , परन्तु चुपचाप छद्म नाम से एक लाख स्वर्ण - उत्कोच देकर उसे भगा दिया । पुलिन्दक ने इसका बड़ा आभार माना और वह विद्याधरों के उस राजा को कृतज्ञतास्वरूप कोई मूल्यवान् उपहार देने की सोचने लगा । उन्हीं दिनों सुभद्र वट के निकट ही एक गिरि - कन्दरा में विकट कृत्या रहती थी । उस कृत्या का प्रभाव और सामर्थ्य दूर - दूर तक फैला हुआ था । वह नर - मांस ही भक्षण करती तथा नित्य नर - बलि देती थी । सब लोग उसे सर्व- सिद्धिदात्री समझते थे और जब वह नर - मांस की आहुति अग्नि में डालकर कंदर्पयामि , कंदर्पयामि का उद्घोष करती थी , तब अर्थीगण बद्धांजलि अपने - अपने अभिप्राय निवेदन करते तथा मनोरथ पूर्ण करते थे। पुलिन्दक इस कृत्या का अनन्योपासक था । प्रतिमास अमावस्या के दिन वह एक सुन्दर बलि अवश्य ही कृत्या को भेजता था । इसमें उसे कुछ कष्ट और असुविधा नहीं होती थी । उसके सेवक दस्यु शबर इधर - उधर लूटमार कर बहुत पुरुषों को पकड़ लाते थे। वह