पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२५९

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उन्हीं में एक सुन्दर तरुण पुरुष को वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर चन्दनचर्चित कर रक्तमधूक पुष्पमाल पहना कृत्या की सेवा में भेज देता था । इस प्रकार अलभ्य बलि - पुरुष को पा कृत्या अति संतुष्ट हो प्रथम उस बलि - पुरुष के साथ मद्यपान कर रतिविलास करती, फिर उसकी बलि शिश्नदेव को दे उसका उष्ण रक्त पान कर प्रसन्न होती तथा बलि - मांस का ही भोजन करती थी । __ इस प्रकार कृत्या को पुलिंदक ने अपने वशीभूत कर रखा था । अब उदयवर्धन के अनुग्रह से प्राण -त्राण पाकर शबर पुलिन्दक स्वयं कुछ उत्तम बलि - पुरुष साथ ले कृत्या की सेवा में आ उपस्थित हुआ । इस समय वह कृत्या यज्ञ - भूमि में बैठी थी । व्याघ्रचर्म पर , एकदम नग्न , बाल खोले , माथे पर बड़ा - सा सिन्दूर -तिलक , मिली हुई बहुत मोटी भृकुटि , टेढ़ी और चपटी नाक, स्थूल कपोल , भयानक ओष्ठ, बड़े- बड़े दांत , लम्बी गर्दन , नाभि तक लटकते स्तन , महा उदर, फूले हुए बड़े- बड़े पैर। वह नेत्रों को बन्द किए मन्त्र -पाठ कर रही थी । सम्मुख वेदी पर ताजा कटा नर - मुण्ड रखा था । निकट ही भाण्डों में बलि - मांस पक रहा था । शबरपति पलिन्दक को देख और नये बलि - परुषों का प्रसाद पा कत्या प्रसन्न हो गई। उसने पुलिन्दक को स्नान करा , विवसन चक्र के भीतर बैठा , उसी से शिश्नदेव का अभिषेक करा, मन्त्रपूत जल का मार्जन कर उसे नर - मांस का प्रसाद खिलाया । फिर कहा " कंदर्पये ! कंदर्पये ! किं ते प्रियं करवाणि ? " यह कृत्या वास्तव में एक ऋषिपत्नी थी । इसका पति देवर्षि था । बहुत नाग , रक्ष , यक्ष, दैत्य , दानव बटुक उसके पास वेदाध्ययन करने आते थे। पीछे वह राक्षस हो गया और घर ही में शिश्नदेव की स्थापना कर वाम - विधि से सपत्नीक मण्डल बना शिश्नदेव का पूजन भजन करने तथा नर - बलि दे नर -मांस भक्षण करने लगा था । उसकी मृत्यु होने पर अब यह उसकी पत्नी कुत्या अपनी दैवी शक्तियों से बहत पूजार्थी हो गई थी । - पुलिन्दक ने बद्धांजलि होकर कहा - “ प्रसीदतु अम्ब ! मेरा मित्र विद्याधरों का स्वामी उदयवर्धन है। उसने मुझे प्राण-दान दिया है, अब मैं कृतज्ञतास्वरूप उसे कोई एक त्रैलोकसुन्दरी कन्या भेंट करना चाहता हूं। उसी के लिए मैं आपकी शरण आया हूं। " पुलिन्दक के ये वचन सुन कृत्या ने हंसकर कहा “विक्रमस्व ! विक्रमस्व! विक्रम कर! विक्रम कर ! तुझे सिद्धि प्राप्त होगी । सुन , यहां से दक्षिण दिशा में समुद्र के बीच मनुष्य रहित एक द्वीप -खंड है । उस द्वीप का नाम रत्न - कूट द्वीप है। वह दुर्गम स्थान है। उस अगम -विजन वन में मलयकेतु दानव ने चार खंड का एक भव्य प्रासाद बनाया है। मणि - कांचन -संयोग से बना वह प्रासाद सब लोकोत्तर भोगों से परिपूर्ण है। उसमें उसने तुम्बुरु यक्ष की पुत्री महल्लिका को चुराकर छिपा रखा है । यक्षनन्दिनी महल्लिका संसार की सब स्त्रियों में श्रेष्ठ है। तिलकुसुम - सी कोमल कान्तिवती वह बाला ऐसी भी है कि उसके सम्मुख सब देवांगनाएं तुच्छ हैं । प्रासाद में एक सहस्र वयस्का परिचारिकाओं के साथ वह कुसुमकोमलकलेवरा महल्लिका रहती है । प्रत्येक चतुर्दशी को दानव मलयकेतु अपने श्वेतरश्मि गजराज पर चढ़ महल्लिका के निकट आता तथा प्रणय-याचना करता है; परन्तु वह भागिनी उसके प्रणय को स्वीकार नहीं करती है । दानव के भय से कोई पुरुष उस द्वीप में नहीं जा पाता है। वह अगम -विजन हर्म्य द्वार - रहित है। इससे वह सर्वजनवर्जित है, पर यह रहस्य मैं तुझे बताती हूं। उसी द्वीप में एक सरोवर