पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२६०

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है। यह सरोवर उस हर्म्य की उत्तर दिशा में पर्वत की उपत्यका में ही है। उसी सरोवर के बीच जल में भूगर्भ -मार्ग का मुख है । तू अपने मित्र को ले वहां जा तथा जलमग्न मार्ग से हर्म्य में जाकर उस यक्ष - कन्या को मित्र पर अनुरक्त कर , फिर पराक्रम से दानव का वध कर यक्ष कुमारी का वहां से उद्धार कर उसे अपने मित्र को देकर कृतकृत्य हो । ” यह गूढ़ संदेश देकर कृत्या खड़ - खड़ करके हंस पड़ी । उसके बड़े- बड़े भयानक दांत बाहर निकल आए। कृत्या से ऐसा गूढ़ संदेश पाकर पुलिन्दक शबर प्रसन्न हो गया । उसने कहा - “मातः, कैसे मैं एकाकी उस महापराक्रमी दानव का वध कर सकता हूं ? अपने मित्र को मैं उस दानव से युद्ध करने के संकट में नहीं डालूंगा । क्या मैं शबरों और विद्याधरों की सेना लेकर रत्न - कूट द्वीप पर जाऊं ? " ___ " इससे सफलता नहीं मिलेगी। युक्ति , विक्रम और प्रपंच से कार्यसिद्धि होगी । वह दानव बड़ा मायावी है, तेरे सब शबरों और विद्याधरों को मारकर खा जाएगा । यह चूर्ण ले । यह सिद्ध चूर्ण है। इसमें सोम - कल्प है। इसके खाने से वह विमोहित हो जाएगा। तब तू अपना कार्य सरलता से कर सकेगा। " इस प्रकार कृत्या से मन्त्र ले पुलिन्दक अपने घर गया । उसने सब बातों को सोच विचारकर प्रथम एकाकी ही रत्न - कूट द्वीप पर जाने का निश्चय किया और वह साहस करके वहां चला गया । उसने सारे वन को भलीभांति देखा । राह- बाट को जांचा और उस द्वार रहित अद्भुत हर्म्य को भी चारों ओर घूमकर देखा । फिर वह उस सरोवर के तट पर जा जल - क्रीड़ा करने लगा । वह बारम्बार जल में गोता लगाकर जल में छिपे गुप्त गर्भ मार्ग-मुख को ढूंढ़ने लगा। अन्त में उसे वह मुख मिल गया । मुख में प्रविष्ट हो , वह शीघ्र ही एक सुरंग में पहुंच गया , जिसको पार करने पर उसने अपने को हर्म्य के भीतर पाया । हर्म्य की शोभा और सुषमा देख वह आश्चर्य - चकित हो गया । हर्म्य की ऊंची-ऊंची दीवारें थीं । भीतर अनेक सौध थे, बाग थे, वाटिकाएं थीं , जिन पर विविध रंगों के फूल खिल रहे थे। वृक्षों पर अनेक विहग कलरव कर रहे थे । वहीं स्वच्छ जल की एक पुष्करिणी थी , जिसके तट पर सघन छाया में बैठी रूप और सुषमा की खान उस किशोरी यक्ष कन्या को उसने फूलों से क्रीड़ा करते हुए देखा। उस समय वह बाला अकेली ही वहां बैठी थी । पुलिन्दक साहस करके उसके सामने जा खड़ा हुआ । एकाएक उस जनवर्जित स्थान में उस पुरुष को देख बाला कुछ भय और आश्चर्य से जड़ हो गई । उसने कहा - “ कः ? कः ? " पुलिन्दक ने उसके निकट आ प्रणाम किया । फिर कहा - “ मा भैषी : बाले ! मुझसे भय न कर । मैं शबरों का राजा पुलिन्दक हूं । " _ " तो तू कैसे इस अगम क्षेत्र में आया , तुझे क्या दानव का भय नहीं है ? " __ " मैं कृत्या माता का सेवक हूं । उन्हीं की आज्ञा से तुझे यहां से मुक्त करने आया हूं । मेरा मित्र विद्याधरों का राजा उदयवर्द्धन अति कमनीय , रूप -गुण में तेरे ही समान अद्वितीय है । तेरी ही भांति वह संसार में नेत्रों को आनन्द देने वाला है । उस कमनीय पुरुष के साथ तेरा संभोग न हो तो कुसुमायुध का धनुष - धारण ही व्यर्थ है । " __ _ पुलिन्दक के ये वचन सुनकर वह बाला उत्सुक और कुछ लज्जित होकर बोली - “ हे अतिथि , तेरा स्वागत है । पर तेरा वह मित्र कहां है? मुझे लाकर दिखा तथा तू कैसे मेरा यहां से उद्धार कर सकता है ? क्या तेरा और तेरे मित्र का ऐसा सामर्थ्य है? "