पुलिन्दक ने कहा - " तू चिन्ता न कर। चतुर्दशी के दिन दानव यहां आएगा । तभी मैं उससे निबट लूंगा और तभी मैं अपने उस मित्र को लाकर तुझे दिखाऊंगा। ” उसने बाला को कुछ गुप्त परामर्श भी दिए और शीघ्र फिर आऊंगा इतना कह वह शबरों का राजा वहां से उसी गुप्त राह से चलकर बाहर आ गया तथा एक तपस्वी का स्वांग धारण कर उसी सरोवर के तट पर आसन जमाकर बैठ गया । नियत काल में श्वेतरश्मि गजराज पर चढ़ वह दानव वहां आया । अपने अगम वर्जित द्वीप पर एक पुरुष को बैठे देख बड़े क्रोध और आश्चर्य से उसके निकट आकर बोला " तू कौन है और मेरे इस वर्जित द्वीप में कैसे आया ? ” “ मैं भगवती कृत्या का गण हूं । भगवती की आशा से तेरे ही लिए यहां आया हूं । " “ मेरे लिए क्यों ? ” " भगवती कृत्या के आदेश से मैं तुझे वशीकरण दूंगा जिससे तू कृतसंकल्प हो । " " क्या तू ऐसा समर्थ है ? " “मैं सिद्ध पुरुष हूं। जा , सरोवर में स्नान कर आ , मैं तुझे सिद्ध चूर्ण दूंगा । " " उससे क्या होगा ? " " तेरा मनोरथ पूरा होगा दानवेन्द्र , कृत्या माता का तुझ पर अनुग्रह है । " दानव -स्नान कर आया और पुलिन्दक ने थोड़ा चूर्ण उसे दिया और कहा, “ इसे भक्षण कर और मौन रहकर बाला के निकट जा । " “ क्या तू मेरा रहस्य जानता है ? " “ मैं भूत , भविष्य सब जानता हूं । " “ स्वस्ति , तो मैं तेरी परीक्षा करूंगा, झूठा होने पर तेरा वध कर तेरा भी भक्षण करूंगा! " पलिन्दक ने हंसकर ऋषि की भांति हाथ उठाकर कहा - “ जा दानवेन्द्र, कृत मनोरथ हो ! " ___ जब मलयकेतु हर्म्य से बाहर आया, वह प्रसन्न था । यज्ञ - बाला ने हंसकर उसकी ओर साभिप्राय दृष्टि से देखा था - एकाध अनुरोध-वाक्य भी कहा था । शीघ्र ही उस कपट मुनि से दानव की मित्रता हो गई । दानव ने उसे अपने द्वीप में रहने की सुविधाएं दे दीं । वह जब आता , उसके लिए उपानय लाता । अवसर पाकर पुलिन्दक अपने मित्र को भी द्वीप में ले गया । गुप्त राह से हर्म्य में उसे पहुंचा दिया । पुष्करिणी के तीर पर वह फूलों से क्रीड़ा कर रही थी । कभी वह गुनगुनाती हुई - सी किसी फूल को तोड़कर मसल फेंकती , कभी उन्हें नासारन्ध्र पर रख सूंघती । इसी समय उसकी दृष्टि तरुण विद्याधर पर पड़ी । वह तरुण न राक्षसों और दानवों की भांति कृष्णवर्णी था , न कद्रूप । उसका गौर वर्ण और कान्त कलेवर देख , उसके उज्ज्वल नीलमणि के समान नेत्र देख , उसका प्रशस्त ललाट और वक्ष देख , वह उस पर मोहित हो गई। उसके कटि -प्रदेश में कौशल्य , कण्ठ में मणिहार और भुजाओं में मणिवलय , सिर पर सुचिक्कण काकुल लटक रहे थे। उसने धड़कते हुए वक्ष पर हाथ रख आगे बढ़कर कहा - “ हे नर - शार्दूल , तुम कौन हो और इस दुर्गम द्वीप में आ , कैसे इस अगम्य हर्म्य में आ गए ? क्या तुम्हें दानवेन्द्र का भय नहीं ? यहां आकर तो कोई पुरुष जीवित नहीं लौटता है। यह दानवेन्द्र- रचित द्वीप रत्न - कूट है। यह
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