पुरुष मात्र के लिए अगम्य है। " __ परन्तु इसी क्षण ओट से निकलकर पुलिन्दक ने कहा - “बाले, यही मेरा मित्र विद्याधरों का राजा उदयवर्धन है। यही तेरे योग्य वर है जिसे मैं ले आया हूं। ” तब तिरछी दृष्टि से उसे देखती हुई कुछ लजाती - सी वह बाला बोली - “ तेरे मित्र की मैं अभ्यर्थना करती हूं। परन्तु मैं परवश हूं। " ___ इस पर आगे बढ़कर उदयवर्धन ने बाला का हाथ पकड़ लिया । बाला ने कहा - " हे धर्मात्मा , मैं कन्या हूं और पिता के अधीन हूं । ” उदयवर्धन ने कहा - " हम गन्धर्व-विधि से विवाह सम्पन्न कर लेंगे, तू उसकी चिन्ता न कर । इतना कह अग्न्याधान कर पुलिन्दक की साक्षी में दोनों ने विवाह -विधि सम्पन्न की । फिर वह तस्कर उदयवर्धन को वहीं छोड़ गर्भ मार्ग से बाहर आ दानव के आगमन की ताक में बैठ गया । जब चतुर्दशी को दानव आया तो उसने बहुत - सा सिद्ध चूर्ण खिलाकर उसे हर्म्यमें भेज दिया । उस सिद्ध चूर्ण के प्रभाव से वह मूर्छित हो गया और उदयवर्धन ने उसका सिर काट लिया । इस प्रकार दानव को मार , कुमारिका को ले वे दोनों मित्र श्वेतरश्मि गजराज पर सवार हो तुम्बुरु यक्ष की नगरी में आए। तुम्बुरु ने अपनी कन्या के उद्धारकर्ताओं की अच्छी अभ्यर्थना की और अग्नि के समान देदीप्यमान रत्न के खम्भों की वेदी बनाकर अपनी पुत्री महल्लिका उसे दे दी । उदयवर्धन उस रमणी- रत्न को पा कृतार्थ हो , उसे ले , साथ में बहुत - सा रत्न - मणि ले, श्वेतरश्मि गजराज पर सवार हो , उसी रत्न - कूट द्वीप के अगम हर्म्य में आ नानाविधि विलास करने लगा। शबरपति पुलिन्दक मित्र का उपकार कर कृतकृत्य हो सुभद्र वट कानन में अपने ग्राम में लौट आया ।
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