75 . राम जब सूर्यपुत्र मनु और उसके दामाद बुध ने अपने पैतृक राज्यवंशों की स्थापना कर ली और सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डल दोनों का भलीभांति विस्तार हो गया , तब उत्तर भारत आर्यावर्त के नाम से विख्यात हो गया तथा इस आर्यावर्त की समृद्धि सम्पूर्ण भारत से बढ़ चढ़कर हो गई । इन आर्यों में अनेक सांस्कृतिक नवीन -स्थापनाएं हुईं । प्रथम तो यह कि इन दोनों ही कुलों ने अब तक चली आती हुई मातृसंज्ञक वंश - परम्परा को त्याग पितृमूलक वंश- परम्परा स्थापित की । कुल- परम्परा को पितृमूलक निश्चित करने में एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक परिवर्तन यह हुआ कि आर्यों में विवाह -मर्यादा दृढ़बद्धमूल हो गई और स्त्रियों के लिए पुरुष पति या स्वामी हो गए। उनके शरीर और जीवन की सम्पूर्ण सत्ता पर उसका अखण्ड एवं सर्वतन्त्र अधिकार हो गया । यहां तक इस मर्यादा का रूप बना कि यदि वीर्य किसी अन्य पुरुष का भी अनुदान लिया हो तो भी संतति का पिता उस स्त्री का वह पति ही माना जाएगा , जिससे उसका विवाह हो चुका है। अविवाहित स्त्रियों का पिता भी वही पति होगा । बहुत - से ऋषियों ने तो वीर्यदान अपना एक पेशा ही बना लिया , जिसमें उल्लेखनीय वेदर्षि दीर्घतपा थे। वशिष्ठ और दूसरे वरिष्ठ ऋषियों ने भी अन्य राजाओं की पत्नियों को वीर्यदान दिया । ऐसी सभी सन्तानें न माता की मानी गईं , न वीर्यदाता पुरुष की । प्रत्युत वे उस पुरुष की सन्तानें और उसी कुल - गोत्र को चलाने वाली प्रसिद्ध हुईं , जो उसकी माता का विवाहित पति एवं स्वामी था । इससे आर्य जाति को यह लाभ तो अवश्य हुआ कि वह एक संगठित जाति हो गई, परन्तु इससे एक नई और महत्त्वपूर्ण बात यह उत्पन्न हो गई कि उनकी राज्य - सम्पत्ति आदि सब वैयक्तिक होती गई और देखते - ही - देखते मानवों और एलों के महाराज्यों का विस्तार हो गया । परन्तु इससे स्त्रियों के अधिकारों का खात्मा हो गया । पत्नी का अपना कुल - गोत्र कुछ भी न रहा। पितृमूलक वंश- परम्परा में पिता का कुल- गोत्र केवल पुत्र को ही मिलता था - पुत्री को नहीं । इसका अभिप्राय यह कि पुत्री को पिता की सन्तान ही नहीं गिना गया । वह पिता के कुल - गोत्र से बहिर्गत एक विच्छिन्न वस्तु मान ली गई, जो वयस्क होने पर किसी पुरुष को उसकी पत्नी बनने के लिए दे दी जाती थी । उसे न पिता का कुल -गोत्र मिलता था , न पति का । इस प्रकार से आर्यों की वंश-परम्परा में स्त्री मात्र पति के लिए सन्तान उत्पन्न करने की एक जीवित क्षेत्र थी । इस विवाह-मर्यादा में दाम्पत्य प्रेम , समानता आदि के कुछ भी भाव न थे। न विवाह का उद्देश्य नर -नारी की नैसर्गिक कामेषणा की पूर्ति था , न वह अन्य शारीरिक और भौतिक एषणाओं पर आधारित था , उसका उद्देश्य अपने पति के लिए जो वास्तव में उसका स्वामी था साथी, मित्र या जीवन -संगी बनना नहीं सन्तान उत्पन्न करना था । दूसरी महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक बात , जो आर्य कुलों में उत्पन्न हुई , वह उत्तराधिकार
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