थी । पिता की सारी राज्य - सम्पत्ति का निश्चित रूप से पुत्रों को ही उत्तराधिकार मिलता था - पुत्रियों को नहीं। इस प्रकार जहां पुत्रियां पिता के कुल - गोत्र से वंचित कर दी गईं वहां सम्पत्ति से भी वंचित कर दी गईं । सम्पत्ति का सर्वार्थ में उत्तराधिकारी पुत्र था । इस प्रकार आर्यों का संगठन एक प्रकार से अस्त्रीक संगठन था । अर्थात् आर्यों की जाति में स्त्री की कहीं भी गणना न थी । वह केवल पुरुष की पूरक थी । पति के लिए उसकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी को उत्पन्न करने के लिए वह ब्याही जाती थी । इसलिए विवाह में अब स्त्रियां पति को स्वेच्छा से वरण नहीं करती थीं , वे पिता के द्वारा दी जाती थीं । इस सम्बन्ध में उनकी सम्मति नहीं ली जाती थीं , न उनकी रुचि और पसन्द का विचार किया जाता था । जिस प्रकार पति को विवाहोपरान्त पत्नी पर पूर्णाधिकार प्राप्त था , उसी प्रकार विवाह से पूर्व कन्या पर पिता को । परन्तु मजेदार बात यह थी कि पिता की सम्पत्ति में और पति की सम्पत्ति में उनका कुछ भी भाग न होता था । वह कुल - गोत्र - सम्पत्ति के सब अधिकारों से वंचित थीं । ज्यों - त्यों आर्यों की राज्य - श्री बढ़ती गई , त्यों - त्यों विवाह के नियम रूढ़िबद्ध होते गए, जिनसे स्त्रियों की दशा एक प्रकार से दासता की सीमा को पहुंच गई । विवाह के समय उसे पति की आज्ञाकारिणी और अधीन रहने का वचन भरना पड़ता था । वह दत्ता थी । स्वयंवरों की प्रथा बड़े- बड़े आर्यकुलों में प्रचलित थी , परन्तु उसमें भी कन्या को अपनी पसन्द का पुरुष चुनने का अधिकार न था । पिता ही उस चुनाव की कोई शर्त रख देता था और उस शर्त को पूरा करने पर वह कन्या उसी को दे दी जाती थी । ऐसे स्वयंवरों में कन्या को वीर्यशुल्का कहा जाता था । इसका अर्थ था - पराक्रम के मूल्य पर कन्या की खरीद। अर्थात् पराक्रम ही कन्या का मूल्य है। कुछ कुल कन्या के मूल्य में भी धन लेते थे। सीता वीर्यशुल्का थी । परन्तु गाधि राजा ने एक हजार घोड़े लेकर ऋचीक को अपनी पुत्री ब्याह दी थी । और इतना ही क्यों , राजा लोग अपनी कन्याएं पुरोहितों को यज्ञ -दक्षिणा की भांति भी दे देते थे। जैसे दशरथ ने ऋष्यशृंग को अपनी कन्या शान्ता दे दी थी । बहुपत्नीत्व की प्रथा भी इसी कारण चली । पति को अनेक स्त्रियों से ब्याह करने के अधिकार प्राप्त हो गए , पर पत्नी को नहीं । विवाह के अतिरिक्त आर्य लोग दासियां भी रखते थे। इस समय आर्य राजाओं के अन्तःपुर में चार प्रकार की पत्नियां रहती थीं , एक महिषी मुख्य महारानी -जिसे राजा के साथ यज्ञ में सम्मिलित होने का अधिकार था । दूसरी पतिव्रता -जिस पर पति का प्रेम कम हो जाता था या जो बूढ़ी हो जाती थी । तीसरी वाग्वृता - जो मुख्य प्रेमिका होती थी । चौथी -पालावली - जो प्रायः मन्त्री की कन्या होती थी । अपना अधिकार बनाए रखने तथा राजा के भीतरी भेद लेने के लिए प्राय : मन्त्रिगण अपनी कन्या राजा ही को देते थे। इसी प्रकार राज्यों की भी पांच श्रेणियां थीं । एक साम्राज्य –जिसमें अनेक अधीन , विजित तथा करद राज्य सम्मिलित होते थे। दूसरा भोज्य जो सम्राट् द्वारा किसी भी नियुक्ति के रूप में प्रदान किया जाता था तथा शासक को केवल उसकी आय पर ही अधिकार रहता था । तीसरा स्वराज्य - जो स्वतन्त्र था । चौथा वैराज्य जो शत्रु का जय किया हुआ होता था । पांचवां राज्य - जो साम्राज्य के अन्तर्गत होता था । दायभाग और उत्तराधिकार के सम्बन्ध में भी आर्यों में पहले यही विधि प्रचलित रही कि राज्य सब पुत्रों में बांट दिया जाता था । जैसे मनु ने अपने पुत्रों में समान राज्य बांट दिया था । परन्तु शशिबिन्दु के कुल में दायभाग का प्रचलन हुआ। शशिबिन्दु ययाति - पुत्र
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