वशिष्ठ ने उन्हें शबरों और म्लेच्छों की मदद से पराजित किया । राज्यभ्रष्ट विश्वामित्र वन में जा छिपे , जहां त्रिशंकु ने उनकी बहुत सहायता की और उनके कुटुम्ब का पालन किया । अवसर पाकर विश्वामित्र ने त्रिशंकु को सिंहासन पर बैठाया और उसके यज्ञ में पुरोहित बने । त्रिशंकु के पुत्र महादानी और महाबली हरिश्चन्द्र हुए । इन्होंने दिग्विजय करके अश्वमेध किया और सोमपुर बसाया । उनके चिरकाल तक पुत्र नहीं हुआ तो उन्होंने वरुण की उपासना की और कहा कि मैं पुत्र की बलि दूंगा । पर जब रोहिताश्व का जन्म हो गया तो मोहवश राजा ने पुत्र की बलि नहीं दी । वशिष्ठ की सलाह से वह सात बार वन को भाग गया और लौट आया । बाईस वर्ष बाद हरिश्चन्द्र को जलोदर का रोग हुआ और समझा गया कि वह वचनभंग का दंड है । अन्त में राजपुत्र के स्थान पर भार्गववंशी वेदर्षि अजीगर्त के पुत्र शुनःशेप को हजार गाय देकर मोल लिया गया और उसकी बलि देकर यज्ञ करने का आयोजन हुआ । बदनामी से बचने के लिए वशिष्ठ इस यज्ञ के पुरोहित नहीं बने - अयास्य आंगिरस को पुरोहित बनाया गया । बालक शुनःशेप को लाल वस्त्र पहनाकर बलियूप से बांध दिया गया । परन्तु कोई यज्ञकर्ता उसके वध को राजी न हुआ । तब अजीगर्त ही सौ गाय लेकर वध करने को राजी हो गया । पीछे जब विश्वामित्र को यह सूचना मिली तो वे आए । वास्तव में यह बालक उनका भांजा था और उन्होंने बड़े झंझटों के बाद उसे बलिदान से बचाया । अब इस समय इस गद्दी पर रोहिताश्व राज्य कर रहे थे। सूर्यवंश की दूसरी शाखा - सगर -वंश ने दशरथ - काल से कुछ ही पूर्व मध्य - भारत में अपनी गद्दी स्थापित की थी । इसी वंश का प्रथम राजा बाहु था , जिसे हैहय तालजांघ ने परास्त किया था । बाहु राज्यच्युत हो अग्नि और्व के आश्रम चला गया था । वहीं सगर का जन्म हुआ । बाहु तो वहीं स्वर्गगत हुए और सगर ने अपने प्रयत्न से राज्य प्राप्त किया तथा न केवल हैहय को जीता अपित अपना राज्य भी बहत बढ़ा लिया । हैहयों के परम्परागत शत्र अग्नि और्व ने इन्हें भारी सहायता दी । सगर ने हैहयों की सारी ही शंकाओं का मूलोच्छेद कर दिया तथा अपना महासाम्राज्य -विस्तार किया । इनकी कमान में साठ सहस्र योद्धा थे। इन्हीं के तीन पीढ़ी के नरेश – अंशुमान्, दिलीप और भगीरथ चार नदियों को खोदकर और मिलाकर गंगा को मैदान में लाए थे। अंशुमान राजर्षि थे, उन्होंने अश्वमेध और राजसूय यज्ञ किया । इस समय गद्दी पर भगीरथ या उसका पुत्र आसीन था । दक्षिण कोसल राजवंश की गद्दी पर ऋतुपर्ण के प्रपौत्र कल्माषपाद थे, जिन्होंने राक्षस धर्म स्वीकार कर नर - मांस खाना आरम्भ कर दिया था । इन्होंने अपने राजगुरु वशिष्ठ के पुत्र शक्ति तथा निन्यानवे परिजनों को विश्वामित्र के भड़काने से खा डाला था । इन्हीं कल्माषपाद की पत्नी में वीर्यदान कर वशिष्ठ ने पुत्र उत्पन्न किया था । कल्माषपाद के बाद इस राजवंश की दो शाखाएं हो गई थीं । निषध-विदर्भ , दक्षिण कोसल और दशार्ण, दोनों राज्यों की सीमाएं परस्पर मिलती थीं । सूर्यवंश की अन्य शाखाओं का उल्लेख अन्यत्र आ चुका है । अयोध्या , श्रावस्ती और साकेत सूर्यवंश की प्रधान राजधानियां थीं । संक्षेप में इस समय उत्तर कोसल राज्य पर राम के स्थानापन्न भरत , हरिश्चन्द्र - शाखा पर रोहिताश्व , सगर - शाखा पर भगीरथ , दक्षिण कोसल गद्दी पर कल्माषपाद, विदेह मैथिल में सीरध्वज , मैथिल संकाश्य - शाखा पर धर्मध्वज, वैशाली में प्रमति और शर्याति राज्य पर मधु राक्षस राज्य करता था । सूर्यवंश की इन गद्दियों के अतिरिक्त जो राजवंश थे उनमें चन्द्रवंश प्रमुख
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