82 . वार वेश्म लंका की प्रसिद्ध कुट्टिनी यमजिह्वा ने जब दूती से यह सुना कि वह मूर्ख अक्षयकुमार मदालसा के प्रेम में भली- भांति सुलग रहा है और यहां आने के लिए उत्सुक है, तो वह बड़ी प्रसन्न हुई । उसने उसे आने का सन्देश भेज दिया । फिर उसने पुत्री को वेश्याधर्म की दीक्षा देते हुए कहा - “ ले , अब तू भी तैयार हो जा । वेश्या के लिए ऐसा नगर - नायक होना चाहिए जो गुरुजनों की बाधाओं से रहित हो , अपने मन का स्वयं मालिक हो , जिसका बाप राजधानी से दूर युद्धद्योगों में निरन्तर व्यस्त रहता हो , पुत्र की चेष्टाओं पर ध्यान ही न दे सके तथा वह तन -मन से स्नेहाक्रान्त हो । ऐसा ही नागर यह मूर्ख राजकुमार है । वेश्या के लिए ऐसा ही नायक सर्वाभिलाषितार्थपूरक होता है। तू अब इसे अपने अधीन कर इससे विपुल संपत्ति हरण करने की चेष्टा कर। " कुछ ही समय में राजपुत्र ने मदालसा के निवेश में प्रवेश किया , नट-विट - दूती और परिभ्रष्टकों के सहित । उसकी चेष्टा गंवारू और वेश अद्भुत था । सिर पर खूब मोटी- लम्बी चोटी, पांच -पांच अंगुल के केश , लम्बे कानों में बड़े-बड़े सीस - पत्र , नुकीले - छीदे दांत । उंगली की पोर- पोर में अंगुलि -त्राण, कण्ठ में स्वर्ण का कण्ठ - सूत्र , सर्वांग पर कुंकुम - कस्तूरी का लेप , रंगीन वस्त्र , नाभि तक लटकती हुई पुष्पमाल, मोम से नर्म किए और शिलारस से रंगे हुए उपानत् ठौर -ठौर पर नाना रंगों के टोटका- सूत्र केशों में बंधे हुए । पान का बीड़ा ठूसने से फूला हुआ एक गाल । सुनहरे तारों के काम की किनारी वाली शाटिका और उत्तरीय , रक्त पुनर्नवा के रस में रंगे हुए नख । किसी की नजर न लग जाए - इसके भय से सूत्रों में बांधे हुए शंख- चक्र , व्याघ्र- नख , स्वर्ण - मण्डित शूकर - दन्त । आगे ताम्बूल - करंड लिए एक दास । अगल बगल श्रेष्ठ - वणिक , बिटकितव- प्रधान संग । हाथ में खड्ग । मदालसा ने देखा तो उसे हंसी आ गई, परन्तु वह लीला -विलास से अंगड़ाई- सी लेती, बाहुमूल और उपांगों की झलक दिखाती वहां से भाग गई । यमजिह्वा ने उसे बैठने को पीठिका दी , ताम्बूल दिया , पृष्ठतूल दिया । राजकुमार ठाठ से पृष्ठतूल पर शरीर का भार रख बैठ गया । संगी-साथी भी बैठे और अप्रासंगिक गप्पें मारने लगे । वे झूठी चापलूसी करने और भोंड़ी गप्पें मारने लगे । मन की विरक्ति को छिपाकर कुट्टिनी यमजिह्वा ने कहा - “ अहा, आज तो हमारे सहस्र जन्म का ही पुण्योदय हुआ, जो राजपुत्र के दर्शनों से नयन सफल हुए ! " इसके बाद तो वेश्यावृत्ति के सारे भावास्त्र ही यथाक्रम प्रयुक्त हुए। पहले चापलूसी फिर अनुराग , प्रणय , रूठना , मान -मनौवल , विरह - शोकोच्छ्वास आदि हाव - भावों में मदालसा ने माता की सिखाई हुई समूची विद्या का सदुपयोग किया , जिसमें यह मूर्ख राजकुमार फंसकर धन , रत्न - मणि लुटाता रहे । वेश्या और ब्रह्मज्ञानी समचित्त होते हैं । वे नि : स्पृह रहकर रस ग्रहण करते हैं । वेश्या को धन देते - देते नायक चाहे कंगाल ही क्यों न हो
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