पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२८९

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जाए, परन्तु उसकी दृष्टि उसके वस्त्रों के उतार लेने में ही रहती है। इस प्रकार बड़े- बड़े दृढ़चित्त पुरुषों के सम्मुख भी वेश्म -विलासिनी वेश्या कामाधीन होने का अभिनय करती हुई पुरुष को असंगत कर देती है। कभी वह संजातपुलका होकर , कभी उल्वणा बनकर , कभी जातोत्कम्पा और कभी स्वेदार्द्रवपु : होकर बारम्बार हास्य - लास्य करके रोकर - गाकर , मौन - कोप करके , कभी पलंग पर औंधी गिरकर , कभी प्रिय नायक की गोद में पछाड़ खाकर अपनी उद्वेगावस्था का अभिनय कर नायक को पागल बना देती है । कभी तो वह काम - संताप को दूर करने के लिए कुंकुम - कर्पूर - चन्दनादि शीतल पदार्थों का लेप करती , कभी संताप - व्यथा प्रकट करने के लिए धूलि - धूसरित रहती । कभी वह ऐसी विरह-व्याकुल व्यथा दर्शाती कि सखियां, चेटियां चन्दन -पंक और नीहार , घनसार , कदली - दल , चन्द्रकान्त मणि से भी उसका दाह शान्त नहीं कर सकती थीं । वह प्रलाप - सा करती हुई कहती - “ अरे , हटाओ इस घनसार को , दूर करो मणिहार को , इन कमल - दलों से क्या ? अरी सखियो, बस करो - ये मृणाल मेरे दग्ध हृदय को शीतल नहीं कर सकते । ” और जब नागर निकट आता तो यह उसका दृढ़ालिंगन करके रागातिशय प्रकट करती। कभी अपनी भुजाओं को मरोड़ती । कभी कहती - “ यह कूकने वाली कोयल , ये गूंजने वाले भौरे , यह कुसुमारोही पवन विधाता ने मेरे नाश के लिए ही रचा है। ” फिर नायक पर कोपकर वक्र नयनों से उसे घूरती हुई कहती - “ अरे निर्दय -निर्मम , मुझे अबला समझकर यह बली मकरकेतु मुझे आक्रान्त कर रहा है । इससे मेरी रक्षा कर! अरे, पूर्व जन्म के सुकृत से ही मैंने तुझे पाया है। " इस पर यमजिह्वा कुट्टिनी रंग चढ़ाती । वह कहती - “ अहा , यह मदालसा! अरे , जब अतनु ने शिव पर कुसुम - शर संधान किया था , तब जो कुसुम झड़कर गिरे उन्हीं से मेरी यह बेटी सुगात्री मदालसा विधाता ने बनाई है । गौरी के लावण्य का तो यह उपहास - सा करती है । भला लाञ्छित शशधर से इसकी मुख- छवि की क्या तुलना ? अरे, कमल की शोभा तो क्षणिक है और चन्द्रद्युति विभ्रम - रहित है -फिर भला मेरी मदालसा के मुख की उपमा क्या है ? इसके नेत्रों को कमल का भ्रम करके भौरे घेर लेते हैं । वह जो स्वाभाविक अरुण अधरों को बन्धुजीव- पुष्परज से रंजित करती है तथा लाल - लाल चरणों को अलक्तक देती है, सो केवल राग - वृद्धि के लिए नहीं , वह तो उसका केवल विन्यास -विलास है । विधाता का चमत्कार तो देख कि उसके संपुष्ट उत्तमांग को उसकी क्षीण कटि कैसे धारण किए है । तिस पर उसका मुरज -वंशीवादन ... नृत्य - गीत -कौशल तो भोगीन्द्र शेष भी वर्णन नहीं कर सकता । ऐसी मेरी मदालसा है, जो न तो कुलीनों की आन मानती है, न वेदवादी ही को कुछ समझती है, पर तेरे लिए वह सूखकर कांटा हो गई। इस अनुराग की भी भला कुछ हद है ! ” इस प्रकार विविध भांति उत्तेजित करके राजपुत्र को भरमाया गया और बार बार उससे धन ग्रहण किया गया । उसके आने पर मदालसा दूर ही से अभ्युत्थान देती , तिरछी नजर से देख मन्द- मन्द मुस्काती, आंचल में लपेटकर उंगलियों को ऐंठती । फिर झट अपने उपांगों की छटा दिखाती वहां से भाग जाती। इसके बाद दीपोज्ज्वल - कुसुमधूप , गन्धाढ्य वासकागार , कोमल पर्यंक , वितत वितान , अभिनन्दनीय मृदु भाषण और सस्नेह सव्रीड - ससाध्वस अवरिल परिहास , पेशलालाप - परिपूर्ण - पुलकदन्तुरशरीरा स्विद्यत्सकलावयवा नायिका।