कालचक्र अनेक रूप प्रकट करता है । यह बलासुरा नगर भी अनेक वैभव देख चुका । जो हो , जब विश्व में नृवंश के पुरखा और नेता यहां के बड़े दैत्य सम्राट की सेवा में एकत्र हुए थे तथा पृथ्वी -विभाजन किया गया था , जिसे सहस्रों वर्षों से उनके वंशधर उपभोग कर रहे हैं तब से अब तक जाने कितने महापुरुषों ने अपने उस प्राचीन अधिकार की रक्षा के लिए कहां - कहां रक्त बहाया है, इसका ठीक -ठीक हिसाब तो इतिहास के पुराने पृष्ठ भी नहीं बता सकते । अस्तु , अब हम फिर उसी मूल घटना - चक्र पर आते हैं । जब देवराट् इन्द्र और विष्णु प्रमुख देवगणों को संग ले बलि की राजधानी बलासुरा में पहुंचे तो नगर की सम्पन्नता देख दंग रह गए । सारा नगर परकोटे के घेरे में बसा था । सब प्रकार के रत्नों से सजे हुए ऊंचे-ऊंचे महल उस पुरी की शोभा बढ़ा रहे थे। नगर के राजपथ बड़े ही प्रशस्त थे। वहां अनेक प्रकार के शिल्पी अपना - अपना कौशल दिखा रहे थे। अपनी इस बलासुरा नाम की नवीन राजधानी में बैठ दैत्यराट् बलि अपने समूचे दैत्य - साम्राज्य का शासन करता था । इस समय उसने त्रिलोकीपति की उपाधि धारण की थी , क्योंकि पृथ्वी पर कोई दूसरा राजा इस काल में उसकी समता का न था । वह धर्म का ज्ञाता , कृतज्ञ , सत्यवादी और जितेन्द्रिय था । सब कोई उससे मिल सकते थे। वह न्याय का बहुत विचार रखता था । वह शरणागतों का रक्षक और दुष्टों का दमन करता था । वह मन्त्रशक्ति , प्रभुशक्ति और उत्साहशक्ति तीनों से सम्पन्न था । सन्धि -विग्रह, यान - आसन, द्वैधीभाव और सामाश्रय इन छ : प्रकार की राजनीतियों को वह भली - भांति जानता था । वेद उसने पढ़ा था । वह उदार, सुशील, संयमी , अहिंसक, शुद्धहृदय , पूज्यों का पूजन करनेवाला , सब विषयों में पारंगत , दुर्दमनीय, भाग्यवान् और अत्यन्त कमनीय था । अन्न, रत्न , स्वर्ण का उसका भण्डार अटूट था । धर्म -अर्थ- काम की वह साधना करता था । वह महादानी था । संयम में दैत्येन्द्र बलि त्रिलोकी में सर्वश्रेष्ठ पुरुष था । उसके राज्य में न कहीं अधर्म होता था न कोई दीन , दु: खी , रोगी , अल्पायु, मूर्ख और कुरूप पुरुष था । जब उसने सुना कि देवराट् इन्द्र और विष्णु - जो उसके पितामह प्रह्लाद के मित्र थे – देव पुरुषों सहित उसके नगर में उसकी सेवा में आए हैं तो उसने अपने मन्त्रियों को आदेश दिया कि देवराज और भगवान् विष्णु हमारे पूजनीय अतिथि हैं , उन्हें आदर के साथ ले आओ। इस प्रकार मन्त्रियों और प्रमुख दैत्य सरदारों को भेजकर बलि स्वयं अपने हर्म्य से अकेला ही निकल पड़ा और अपने समृद्ध नगर की सातवीं ड्योढ़ी पर जा पहुंचा। उसने विष्णु का सांगोपांग पूजन किया और इन्द्र तथा देवों की अभ्यर्थना कर कहा - " आपकी अभ्यर्थना करके मैं कृतार्थ हुआ । " उसने बारम्बार इन्द्र का आलिंगन किया और अपने राजभवन के भीतर ले जाकर अर्घ्य-पाद्य से विधिवत पूजन किया। फिर कहा - “ इन्द्र, आज मैं आपको अपने घर पर आया देखता हूं , इससे मेरा जन्म सफल हो गया । मेरे सभी मनोरथ पूरे हो गए। आपके साथ मेरे पितामह के श्रद्धेय मित्र विष्णु भी हैं जो मेरे पितृचरण से भी बढ़कर पूज्य हैं । अब कहें , किस प्रयोजन से आना हुआ है। मुझे सारी बात बताइए । आप लोगों ने इन सब देवों के साथ यहां आने का कष्ट उठाया है , इससे मुझे अत्यन्त आश्चर्य हो रहा है । " देवराट् इन्द्र ने कहा - “ दैत्यराज , आज आप त्रिलोकपति हैं और आपसे श्रेष्ठ पुरुष
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