पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३३९

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हैं । अनेक राक्षस सुन्दरियों के बीच रमण कर रहे थे। अनेक सुन्दरियां अपने पतियों के साथ रमण कर रही थीं । बहुत - से स्थानों पर राक्षस मद्य पी - पीकर प्रलाप कर रहे थे। वे एक दूसरे पर आक्षेप कर उन्मत्तों की भांति आपस में झगड़ रहे थे। बहुत - से राक्षस मद्य पिए अपनी स्त्रियों के अंकपाश में मद- मूर्छित पड़े थे। अनेक स्थानों पर राक्षस अपने मित्रों से मधुरालाप तथा हास -विलास कर पान - गोष्ठी का आनन्द ले रहे थे। अनेक राक्षस सुन्दर थे अनेक कद्रूप; बहुतों के नाम कर्णसुखद थे, बहुतों के कुत्सित । कुछ राक्षस पवित्राचरणी भी थे। राक्षस -स्त्रियां भांति - भांति के सुन्दर वस्त्राभरण धारण किए कहीं हास -विलास कर रही थीं , कहीं मंगलगान और कहीं मधुपान कर अट्टहास कर रही थीं । प्रियतम और मद्यपान में उनका परम अनुराग था । उनकी अमित ज्योति थी , असाधारण रूप था , अप्रतिम तेज था । बहुत - सी रमणियां अपने हर्यों की छतों पर अपने प्रियतमों की गोद में बैठी पान -विलास का आनन्द ले रही थीं । इस प्रकार मारुति ने अनगिनत स्त्रियों को देखा पर उन्हें अयोनिजा सुकुमारी जनकनन्दिनी सीता के कहीं भी दर्शन नहीं हुए । तब वे रावण के अन्त : पुर की ओर चले । वहां जाकर उन्होंने देखा वह अन्त : पुर चारों ओर गहरी खाई से घिरा हुआ था । वह निर्मल और अलौकिक सुन्दर भवन धवल रश्मि -प्रभा बिखेर रहा था । उसकी रक्षा के लिए सहस्रों महाबल सुभट राक्षस भली - भांति शस्त्रसज्जित नियत थे। उसकी चारदीवारी स्वर्णखचित थी । भूमि मणिमयी थी । चन्दन आदि के सुगन्ध - द्रव्यों के जलने से वह महल महक रहा था । मारुति ने युक्तिपूर्वक उस दुर्गम महल में प्रवेश किया । उन्होंने देखा - जैसे गायों के यूथ में वृषभ घूमता है, उसी भांति रावण रमणीय रमणियों से सम्पन्न इस अन्त : पुर में विचरण करता है । जिस प्रकार तारागणों के बीच चन्द्रमा की शोभा होती है, वैसी ही शोभा उस समय रावण की हो रही थी । वह राजमहल स्वर्णद्वारों, चांदी से मढ़े चित्रों तथा अदभुत अन्तर्वारों से सशोभित था । रत्नजड़ित रथ , अश्व, गजवाहन , इधर -उधर घूम रहे थे। ठौर - ठौर पर कोमल बिछौने बिछे थे। अन्तःपुर की विश्वस्त रक्षिका राक्षिसयां खड्ग , शूल लिए मुस्तैद पहरा दे रही थीं । स्त्रियां नाच-रंग में मस्त थीं । उनके आभूषणों की चमक और ध्वनि से वहां का वातावरण मुखरित हो रहा था । मारुति ने रत्नजटित पर्यङ्क पर रावण को देखा । कुछ सुदासियां मणिपात्र में भर - भरकर उसे मद्य दे रही थीं , कुछ चंवर झल रही थीं । कुछ वीणा - मुरज बजा रही थीं , कुछ गान कर रही थीं । महल के चारों ओर तरह- तरह की पालकियां, लतागृह, चित्रशालाएं , क्रीड़ापर्वत , विलास - गृह और दिन में विहार करने के घर भी थे। वह भवन रत्नाभरणों तथा रावण के तेज से देदीप्यमान था । वहां पलंग, चौकी, उपधान , उपरक्षिकाएं आदि सभी कुछ दिव्य थीं । चारों ओर नूपुर की ध्वनि , करधनियों की खनखनाहट तथा मधुर वाद्यों से वह हर्म्यमुखरित हो रहा था । हनुमान् घूम - घूमकर महल , अलिंद, पाश्र्व , उपान्त सभी को देखने लगे । वहीं उन्होंने वह अद्भुत पुष्पक विमान देखा जो रत्नखचित था । विमान की भूमि मरकतमणि की बनी थी । उसका प्रकोष्ठ श्वेत वर्ण का था । उसमें रत्नों की पच्चीकारी करके सर्प , पशु, पक्षी , फूल , वृन्त आदि ऐसे बनाए गए थे कि जिनसे वास्तविक होने का भ्रम होता था । उस विमान में मूंगे , वैदूर्य और चांदी के पक्षी बनाए गए थे। सूंड़ों वाले हाथी भी विचित्र थे। उस विमान में ऐसी कोई रचना न थी , जो रत्नों से रहित हो । उस वायुवेगी , दुर्धर्ष, दुर्लभ विमान पर आरूढ़ हो चक्रवर्ती, महिदेव ,