पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३४०

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सप्तद्वीपपति सर्वजयी रावण अबाध आकाश-विचरण करता था । विमान का भली भांति अवलोकन कर मारुति बहुत - से कक्षों को देखते - भालते एक विशाल कक्ष में घुस गए, जो रावण का खास गुप्त कक्ष था । उसमें मणियों की सीढ़ियां और सोने की जालियां लगी थीं । फर्श के जोड़ों में जो स्फटिक मणि लगी थी । उसके जोड़ों में हाथीदांत की पच्चीकारी थी । उसमें विशाल मणिस्तम्भ थे तथा छत में हीरे , मोती , माणिक और मूंगे के जाल की चादर तनी थी । दीवारों पर सोने के तारों का काम था । कक्ष में स्वर्णतार - ग्रथित कोमल बिछौना बिछा था । वहां की रक्षिका सुन्दरियां मद्य पी - पीकर आपस में चुहल कर रही थीं । उसके कारण वह कक्ष शरत्कालीन शोभा धारण कर रहा था । अब अर्धरात्रि व्यतीत हो चली थी । वे अब रावण के शयन - कक्ष में जा पहुंचे। उन्होंने देखा कि वहां एक अद्भुत पलंग था , जिस पर अनेक वेदियां बनी थीं । उस पर अनेक बहुमूल्य उत्तम वस्त्र बिछे थे। उस पर चन्द्रमा के समान एक छत्र लगा था । अनेक स्त्रियां खड़ी पंखियां ले - ले रावण को हवा कर रही थीं । रावण सो रहा था । वहां अनेक प्रकार की सुगन्धित सामग्री जल रही थी । शयन - कक्ष उनकी सुगन्ध और सौरभ से सुरभित हो रहा था । सोता हुआ रावण जल से भरे हुए वर्षोन्मुख बादल की शोभा धारण कर रहा था । उसके शरीर पर सुगन्धित चन्दन का लेप चढ़ा था । उसके नेत्र लाल और भुजाएं विशाल थीं , वे पलंग पर फैली हुई इन्द्रध्वजा - सी लग रही थीं । उनमें स्वर्ण के बाजूबन्ध बंधे थे। वह कामरूप रावण उस समय बड़ा ही शोभनीय प्रतीत हो रहा था । उस समय वह पीत अधोवस्त्र धारण किए था । उसका वृषभस्कन्ध बड़ा गठीला था । अंगुलियों में रत्नमुद्रिकाएं जड़ी थीं । वह मद्य के नशे में मस्त हो रहा था तथा वेग से सांस ले रहा था । उसकी सांस के साथ पान , पूग, केसर , कस्तूरी की गन्ध आ रही थी । उसका सूर्य के समान देदीप्यमान किरीट वहीं एक ओर रखा था । उसके कान में जो हीरे के कुण्डल थे। उनके कारण उसका मुख और भी प्रदीप्त हो रहा था । उस समय वह सोता हुआ रावण ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे गंगा में गजराज पड़ा सो रहा हो । स्वर्ण दीपाधारों पर सुगन्धित तेल के दीप जल रहे थे। पलंग के निचले भाग में इधर - उधर रावण की विधुवदनी स्त्रियां सो रही थीं , जिनके मणि - माणिक्यों की आभा से वह कक्ष जगमग हो रहा था । उनके कानों के कुण्डल ऐसे चमक रहे थे जैसे आकाशा में तारामण्डल चमकता है । वे स्त्रियां खूब मद्य पी -पीकर, जो जहां थीं , वहीं लीला -विलास करती हुई सो गई थीं । उनके गहने , वाद्ययन्त्र , वीणा , मुरज , मृदंग उनके पास ही इधर उधर बिखरे पड़े थे। वीणा बजानेवाली वीणा ही को अंग में लपेटे सो गई थीं । कोई रमणीय रमणी स्वर्ण- कलश के समान अपने ही स्तनों को पकड़े पड़ी थीं । बहुत स्त्रियां अपनी - अपनी सहेलियों को आलिंगन किए पड़ी थीं । उनकी रूपराशि से वह शयनकक्ष देदीप्यमान हो रहा था । इन स्त्रियों में देश - देशान्तरों से हरण की गई राजकन्याएं भी थीं , जिनकी आज रात रावण के शयन - कक्ष में सेवा की बारी थी । बहत - से ऐसे भी महर्षियों , दैत्यों , गन्धों और नागों की स्त्रियां थीं , जो स्वतः ही कामासक्त हो रावण की स्त्रियां बन गई थीं । पर उस कक्ष में ऐसी एक भी स्त्री न थी जो रावण से प्रेम न करती हो । वे सब रूपवती , कुलीना रमणियां उत्तम वस्त्राभरणों से सज्जिता थीं , जो अपने विलास और क्रीड़ा से देखने वालों को उन्मत्त कर देती थीं ।