पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३४१

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इन सब रूपसी षोडशियों से पृथक् एक अतीव सुन्दर मणि - खचित पलंग पर एक असाधारण सुन्दरी सो रही थी । यह रमणी अपनी रूपनिष्ठा तथा गौरवर्ण के कारण सबसे पृथक् सर्वोपरि परिलक्षित हो रही थी । उस स्त्री का रूप- लावण्य अति मनोहर था । उसकी वेश - भूषा भी उसके अन्तःपुर के स्वामित्व की सूचक थी । उसे देख हनुमान् ने सोचा , कदाचित् यही तो भगवती सीता नहीं है । परन्तु वह प्रेम -वियोगिनी विदग्ध - हृदय सीता यहां रावण के विलास - गृह में कैसे मद्यपान मत्त हो सो सकती है! निस्संदेह यह सीता नहीं है । मेधावी मारुति ने समझ लिया कि यह रक्षराज - महिषी मन्दोदरी है । तब भगवती अयोनिजा सीता कहां हैं ? । हनुमान् चिन्तित होकर अन्त : पुर में इधर - उधर विचरण करने लगे। महालसा , निद्रासक्त स्त्रियां सूदागार में विविध मांस - पकवान तैयार करने में लग रही थीं । कोई गोरी , कोई सांवले रंग की थी । वे स्वर्ण पात्रों में पृथक् - पृथक् उत्तम प्रकार के मद्य , भोज्य , चळ, चूष्य , पेय पदार्थ, शूकर , महिष , लाव , तित्तिर, हरिण, मनुष्य का मांस पाक कर - कर रख रही थीं । सहस्रों स्वर्ण-कलश मदिरा से भरे वहां धरे थे। वहां की वायु भी मदगन्धा हो रही थी । उनमें बहुतेरी तो काम करती करती वहीं सोकर झपकी ले रही थीं । इस प्रकार मारुति ने रावण का सारा ही अन्तःपुर छान डाला , परन्तु कहीं भी सीता का पता न लगा । तब हनुमान् खिन्न मन अन्तःपुर से बाहर आ दूसरी ओर चले । अब वे लतागृहों , चित्रगृहों, निशागृहों में सीता की खोज करने लगे , पर सीता जब उन्हें वहां भी न मिली तो उन्हें सन्देह हुआ कि कदाचित् सीता जीवित नहीं है। राक्षसों ने उसे मारकर खा डाला है। ये राक्षस सदैव से आर्यों के वैरी हैं । अब सीता का यदि पता ही न लगा तो मेरा लंका आना व्यर्थ हुआ । दुर्लंघ्य समुद्र को लांघना ही अकारथ गया । अब लौटकर मैं अपने साथियों को क्या संदेश दूंगा ? सुग्रीव की दी हुई अवधि भी अब बीत चली है । परन्तु मुझे निराश न होना चाहिए । निराशा ही असफलता का चिह्न है । उत्साह ही से पुरुष को सफलता मिलती है। इससे मुझे अब अन्यत्र भी यत्न से सीता की खोज करनी चाहिए। यह सोच अब वे गुप्त और दुर्गम स्थानों में सीता को खोजने लगे । तहखाने, भूगर्भ हर्म्य, मण्डप , एकान्त कुटी आदि में उन्होंने खोज की । वे रुक - रुककर घरों के ऊपर-नीचे, भीतर- बाहर जा -जाकर आहट ले -लेकर सीता को खोजने लगे । उन्होंने तड़ाग , उपवन , वन , वीथिकाएं भी देख डालीं। विद्याधरों नागों की स्त्रियों में भी देखा - पर सीता कहीं भी न मिली । तब वे शोक और निराशा से व्यथित हो भूख और थकान से शिथिल एक ठौर पर गिर पड़े । वे सोचने लगे कि सीता शोक में मर गई हों अथवा लाते हुए छटपटाकर समुद्र में गिर गई हों अथवा रावण क्रुद्ध होकर उन्हें खा ही गया हो अथवा दुष्टा राक्षसियों द्वारा रावण की पत्नियों ने ही ईर्ष्यावश उन्हें मरवा डाला हो अथवा कहीं उन्हें छिपाकर तो नहीं रखा गया है ! साध्वी सीता रावण के वश में तो आ ही नहीं सकतीं। वे या तो मार डाली गईं या स्वयं मर गईं। परन्तु अब मैं क्या करूं ? किससे पूछ् ? किससे सम्मति लूं ? भला शत्रुपुरी में मेरा कौन सहायक है ? परन्तु यदि सीता मुझे न मिली तो मैं यहां से जीवित पीछे नहीं लौटूंगा । समुद्र में जल - समाधि लूंगा या अन्न - जल ही मैं तभी ग्रहण करूंगा जब सीता को खोज लूंगा। भले ही मेरे प्राण चले जाएं । सीता की खोज किए बिना यदि मैं लौटूंगा तो मेरी कीर्ति का ही नाश हो जाएगा । फिर जीवन किस काम आएगा ? परन्तु अभी