पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३४२

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तो मैं और भी उद्योग करूंगा। यह तर्क -वितर्क कर हनुमान फिर साहस करके उठे । वे क्रोध में सोचने लगे कि सीता न मिली तो मैं इस महाबली रावण को मारकर ही उसका बदला लूंगा। परन्तु संपाति ने कहा है कि सीता लंका में है अवश्य । । इस प्रकार विचार करते - करते वे अशोक वाटिका के द्वार पर आ पहुंचे तथा वायुवेग से उसकी प्राचीर पर चढ़कर भीतर कूद गए। वहां वसन्त के सघन वृक्ष विकसित और पुष्पित हो रहे थे। लताओं ने आम्र कानन को आच्छादित कर रखा था । ऋतु-ऋतु के फल वृक्षों से लदे पड़े थे। उन्हें देख तथा उनकी मधुर गन्ध - सुगन्ध से उनकी भूख जाग्रत हो गई । वे वाटिका में इधर - उधर घूमने लगे । उनकी आहट पा वृक्षों पर सोए पक्षी जाग उठे और उड़ - उड़कर इधर से उधर पंख फड़फड़ाने लगे । उन्होंने देखा - अशोक वाटिका में विकट राक्षसों का पहरा लगा है । वे इधर - उधर अपने को छिपाते सरोवरों - पुष्करिणियों के तटों का आश्रय लेते हुए आगे बढ़ते चले गए। वहां अशोक वृक्ष पुष्पित हो ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो वे स्वर्णमणि से निर्मित हों । उनके नीचे सोने की वेदियां बनी थीं और वे ठौर ठौर पर निर्झर जल से सिंचित थे। हनुमान् ने सोचा – सम्भव है यहीं सीता को रखा गया हो । प्रिय -वियोग में वनवास में तो उनकी रुचि होना स्वाभाविक ही है। वे यहां होंगी तो सायंकालिक और प्रभातकालीन नित्यकर्म के लिए अवश्य ही यहां पुष्करिणी पर आती होंगी । यहां राक्षसों की सतर्कता से भी मुझे अनुमान होता है कि सीता का अवश्य ही यहां निवास होगा । इन सब बातों को भली - भांति विचार , वे एक बड़े वृक्ष पर चढ़कर चारों ओर खूब ध्यान से देखने लगे । तब अचानक ही उनकी दृष्टि एक धवल प्रासाद पर पड़ी जो गोलाकार और बहुत ऊंचा था । उन्होंने देखा वहां च्यूटी दल की भांति बहुत - सी राक्षस मूर्तियां इस निशांत काल में भी सजग हैं । वे वृक्ष से उतर वृक्षों की सघन छाया में अपना शरीर छिपाते हए पद- शब्द को बचाते उस हर्म्य के निकट आए। वह हर्म्य बहुत ऊंचा था और सहस्रों खम्भों पर टिका था । उसकी सीढ़ियां मूंगों की बनी थीं और वेदियां चन्दन की थीं । वह स्वच्छ प्रासाद स्निग्ध चन्द्र - ज्योत्स्ना का मूर्त प्रतिबिम्ब - सा दीख रहा था । धीरे- धीरे अपने को छिपाते हुए हनुमान् फिर वृक्ष पर चढ़ वृक्षों - ही - वृक्षों में हर्म्य के निकट आ गए । अब उन्होंने देखा - एक मलिनवसना सुन्दरी, पीतप्रभा, कृशकाया , क्लान्तवदना उपवास - शोक-व्यथाव्यथिता दिव्यांगना - सी रूपप्रभा बाला हर्म्य से बाहर एक अशोक वृक्ष के नीचे अधोमुखी बैठी लम्बी - लम्बी सांसें खींच रही है। उसके अंग पर एक ही पीला वस्त्र है। निरलंकारा होने पर भी वह मलिनवस्त्रा राख में ढके अंगार की भांति प्रतीत हो रही है । उनका मुख वर्षोन्मुख बादल के समान गम्भीर तथा आंखें भादों के मेघों के समान झर - झर वर्षा करती हुई हैं । वह शोक और चिन्ता से कातर हैं । उनके सिर पर काले नाग के समान ही वेणी है जो कमर तक लटक रही है । उसको चारों ओर से घेरकर सजग शस्त्राधारिणी राक्षसियां बैठी हैं , जो बड़ी , विकरालवदना हैं । उनसे घिरी हुई वह मृगनयनी बाला कुत्तों से घिरी हुई असहाय मृगी - सी प्रतीत हो रही थी । इस शोक - मूर्ति को देखते ही मारुति ने समझ लिया - अयोनिजा , अमोघ - शुल्का, जनक -तनया , राम - वधू भगवती सीता यही है। श्रीराम ने जैसा रूप सीता का वर्णन किया है, वैसा ही इसका रूप