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पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३४४

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92. सीता - साम्मुख्य इसी समय चन्द्रोदय हआ । अब चन्द्रज्योत्स्ना के आलोक में हनुमान ने शोकाभिभूता सीता को भारी बोझ से जल में झुकी हुई नौका के समान देखा । उसे घेरकर जो राक्षसियां बैठी थीं , वे बड़ी विकट , निर्दय और भयानक थीं । उनमें कोई मदिरा - पान कर मत्त हो बक रही थी , कोई क्रोध में जोर - जोर से चिल्ला रही थी । वे सब सीता से दूर - दूर , उस वृक्ष को घेरकर बड़ी सावधानी से सीता की चौकसी कर रही थीं । सीता का पातिव्रत लंका में बहुत ख्यात हो चुका था , अतः अनेक राक्षसियां इसी पर सीता की खिल्ली उड़ा रही थीं । कुछ उसकी प्रशंसा कर और मद पीकर अपने होठ चाट रही थीं । हनुमान् बड़ी सावधानी से अब उन दुरात्मा राक्षसियों की दृष्टि बचाकर उसी वृक्ष पर छिपकर बैठ गए। धीरे -धीरे रात्रि व्यतीत होने लगी। वेदज्ञाता याज्ञिक राक्षसों की वेद ध्वनि सुनाई देने लगी । सुदूर राजमहालय से मंगल- वाद्यों का घोष सुन पड़ने लगा । प्राची में अरुणोदय हुआ । रक्षपति रावण नियमित विधि से निवृत्त हो सीता को देखने अशोक - वन में आया । वह प्रभातकालीन आभरण देह पर धारण कर रहा था । उज्ज्वल श्वेत कौशेय में उसका वज्र- गात अत्यन्त शोभायमान प्रतीत हो रहा था । रक्षेन्द्र स्वर्ण पालकी में बैठा था , जिसे बत्तीस तरुणियां कन्धे पर उठा रही थीं । पालकी के आगे -पीछे इधर - उधर सौ दिव्य सुन्दरियां रावण के गन्ध , ताम्बूल , छत्र , चमर और सुख - साधन लिए चल रही थीं । कोई ताड़पंखे से हवा करती चल रही थी । कोई आगे- आगे सोने की झारी में शीतल जल लिए चल रही थी । बहुत - सी स्त्रियां आगे - आगे मुरज - तुरही और शंख- ध्वनि करती चल रही थीं । उन सब तरुणी रूपसी बालाओं से घिरा हुआ रावण नक्षत्रों के बीच चन्द्रमा - सा प्रतीत हो रहा था । रावण की अवाई जान सब रक्षिकाएं सावधान हो गईं । वन प्रहरी भी सजग हो गए और हनुमान भी भली - भांति अपने को वृक्षों के पत्तों में छिपाकर बैठ गए। उन्होंने भली - भांति विश्वजयी सप्तद्वीपाधिपति रावण को देखा । उस भोर के प्रकाश में भी रावण रक्षेन्द्र के साथ अनेक दीपिकाएं थीं , जिनसे उसका मुख्य देदीप्यमान हो रहा था । सीता ने जब रक्षपति रावण को अपने निकट आते देखा तो वे केले के पत्ते के समान भय से कांपने लगीं । उन्होंने अपने अंग अपने ही में सिकोड़ लिए। जांघों से पेट और भुजाओं से स्तनों को छिपा लिया । वे अश्रुपूरित नेत्रों से अधोमुखी हो जड़वत् बैठी रहीं । रावण ने धीरे - धीरे उस शोकाकुला मलिनवेशा सीता के पास आकर उसे देखा ; वह श्रेष्ठक्ल में उत्पन्न होने पर भी मलिनवेशा होने से हीनकुलोत्पन्न - सी लग रही थी । वह नष्टप्राय यश , निरादृता श्रद्धा, टूटी हुई आशा, तिरस्कृत अन्धकाराच्छन्न प्रभा , विधिरहित पूजा अथवा जलरहित नदी - सी हो रही थी । उपवास , शोक और भय से वह अतिकृश हो गई थी । आहार उसका बहुत कम था । तप ही उसका जीवन था । ऐसी वह पतिप्राणा सीता उस रक्षपुरी में एक निराली ही उपमा धारण कर रही थी ।