रक्षपति रावण दयार्द्र हो सीता के पास जाकर कहने लगा “ भद्रे सीते! मुझे देख तूने अपने अंग समेट लिए। तू किसलिए अपने को नष्ट करना चाहती है ? अरी सुन्दरी, तुझ शत्रु - स्त्री को मैं प्रेम करता हूं, तो तू भी मेरा आदर कर , भय त्याग। अरी रूपसी , शत्रु की स्त्रियों को हरणकर उन्हें भोगना हम राक्षसों की परिपाटी है, पर मैंने तेरी इच्छा के विपरीत तुझे छुआ भी नहीं है । इसलिए तू मुझ पर विश्वास कर , भय त्याग। इस कठिन व्रत को छोड़ और उस भिखारी राम को भूल जा । तू सब स्त्रियों में शिरोमणि है , सो लंका में मेरे मणिमहल में सब रानियों की शिरोमणि होकर रह। तेरी यह दुर्दशा देखी नहीं जाती । तेरा यौवन अकारथ जा रहा है । मेरे नेत्र तेरे जिस अंग पर पड़ जाते हैं , वहीं अटक जाते हैं । अब तू यहां से छुटकारे की आशा छोड़ । राम का भी मोह छोड़ और इस रक्षपुरी के सब भोग भोगकर मेरे साथ रमण कर । तू कहे तो मेरे अधिकार से परे इस पृथ्वी पर जितने नगर लोक हैं , वे सब जीतकर मैं तेरे पिता जनक को दे दूंगा। मेरे मणिहर्म्य में जितने रत्न-स्वर्ण द्रव्य हैं , तू उन सबको जैसे चाहे लुटा दे। संसार में मुझे जीतने वाला अब कोई योद्धा नहीं है । देव , गन्धर्व, नाग , यक्ष , मानव , दानव , दैत्य सभी तो मेरे चरण - सेवक हैं । मैं सप्तद्वीपाधिपति , सर्वजयी महिदेव रावण तेरा दास हूं । तू हंसकर मुझे आज्ञा दे कि तेरा क्या प्रिय करूं । उस साधारण चीर धारण करने वाले राजभ्रष्ट निष्कासित दुरात्मा राम से अब तेरा क्या लेना - देना है ! जीवन का सार यौवन है, यौवन का सार भोग , भोग का सार वैभव । सो वे सब तुझे यहां लोकोत्तर प्राप्त हैं । स्वच्छन्द दिव्य रसों का पान कर ।मेरे अन्तःपुर में तीनों भुवनों की स्त्रियां हैं । वे सभी तेरी उसी प्रकार सेवा करेंगी, जैसे अप्सराएं लक्ष्मी की करती हैं । सम्पूर्ण लोकों का ऐश्वर्य भी मिलकर मेरे ऐश्वर्य के समान नहीं है। सो तू अब भी राम की रट रटे जाती है, जो तपस्या , बल , पराक्रम, धन , तेज , यज्ञ किसी में भी मेरी समता नहीं कर सकता! सो हे भीरु, मुझ पर प्रसन्न हो जा और जीवन का भोग भोग , जीवन सफल कर । " तब सीता ने तृण की ओट करके कहा-“ हे राक्षसेन्द्र , उच्च कुल में मेरा जन्म हुआ है तथा विवाह पवित्र कुल में हुआ है । मैं लोकनिन्दित आचरण नहीं कर सकती। तू अपनी ही स्त्रियों में मन लगा । तू मेरी याचना के योग्य नहीं है। मैं पराई स्त्री हूं, सती हूं, पतिव्रता हूं । तू सर्वज्ञ है, बहुज्ञ है, महिदेव है, धर्माधर्म का ज्ञाता है, विश्रुत है, सो तुझे उचित है कि तू स्वधर्म में दृष्टि रखकर सज्जनों के मार्ग का अनुसरण कर ! तू जैसे अपनी स्त्रियों की रक्षा करता है, उसी भांति पराई स्त्रियों की रक्षा भी कर । क्या तू इतना भी नहीं जानता कि जिस पुरुष का मन पराई स्त्रियों पर चंचल होता है - उस पापात्मा का उस स्त्री द्वारा अपमान ही होता है। क्या तेरी लंका में सत्पुरुषों का निवास नहीं ? या तू ही सत्पुरुषों के आचरणों का अनुसरण नहीं करता ? और यदि रक्षकुल का विनाश ही निकट आ गया हो , तो संभव है इसी से तेरी बुद्धि विपरीत हो गई है । कामी और स्वेच्छाचारी राजा के हाथ में पड़कर तो बड़े-बड़े समृद्ध राज्य भी नष्ट हो जाते हैं । इसलिए यदि तू अविवेक करेगा तो जान ले कि धन , धान्य , वैभव से भरी -पूरी, तेरी यह स्वर्ण लंका अवश्य ही नष्ट हो जाएगी । अरे , जैसे सूर्य से प्रभा भिन्न नहीं , वैसे ही मैं राम से अभिन्न हूं । तेरा यह अपार वैभव और अपार राज्य मुझे नहीं लुभा सकता। तेरी कुशल इसी में है कि मुझे रघुपति के पास पहुंचा दे और इस दुष्कर्म की उनसे क्षमा मांग । इससे तेरा कल्याण होगा । नहीं तो एक दिन तुझे काल के
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