पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

समान क्रुद्ध उन दोनों भ्राताओं के कोप का भाजन होना पड़ेगा । शीघ्र ही तू इन्द्र के वज्र के समान राघव के काल बाणों से इस नगरी के राक्षसों का संहार देखेगा। अरे , उन्होंने जो जनस्थान में तेरे चौदह सहस्र राक्षसों का वध किया सो उसका बदला तूने चोर की भांति लिया ? कितनी लज्जा की बात है ! ” सीता के ये वचन सुन , रावण के साथ जितनी गन्धर्व और यक्ष - कन्याएं थीं , प्रसन्न मुद्रा से जनकनन्दिनी की ओर देखने लगीं। किसी ने नेत्रों से और किसी ने मुख की भावभङ्गिमा से सीता को धैर्य बंधाया । परन्तु रावण क्रोध से अधीर हो गया । उसने कहा - “ मेरे प्रिय और मधुर व्यवहार का तूने इतना कठोर उत्तर दिया ! मैंने तुझे जो अवधि धर्म मर्यादा से दी है, उसमें दो मास और हैं । इस अवधि में तू यदि मेरा प्रस्ताव स्वीकार नहीं करती है, तो निश्चय ही मेरे सूदागार के सूद मेरे कलेवे के लिए तेरे हृत्खण्ड का पाक तैयार करेंगे। तू उस राज्य- भ्रष्ट राम की अभी रट लगा रही है, सो तू मूर्ख स्त्री है, जो न देशकाल के औचित्य को समझती है , न हिताहित को । " इस पर धान्यमालिनी नामक यक्षिणी ने आगे बढ़कर हंसते हुए रावण से कहा - “ हे रक्षेन्द्र, इस दीना , मलिना, दुरारोहिणी , विद्वेषिणी स्त्री से आपका क्या प्रयोजन है ! जो स्त्री जिस पुरुष से प्रेम नहीं रखती, उसकी चाह में शरीर भस्म हो जाता है । अनुरागवती स्त्री ही के प्रेम से रस - प्राप्ति होती है, सो सप्तद्वीपनाथ रक्षेन्द्र, मुझ प्रेमभाविता पर अनुग्रह करें । अन्य से आपका क्या प्रयोजन है! " यक्ष -कन्या के ये वचन सुनकर रावण हंसकर उसके कन्धे पर हाथ रख उठ खड़ा हुआ तथा उसी भांति गन्धर्व, नाग , यक्ष - सुन्दरियों से घिरा आवास को लौट गया । उसके लौटने पर राक्षसियां सीता को सत्परामर्श देने लगीं । एकजटा ने कहा - “ बड़े आश्चर्य की बात है कि तू मूढ़ , महात्मा रावण की भार्या बनना अंगीकरण नहीं करती ! ” हरिजटा ने कहा - “ सुन , पुलस्त्य छ : प्रमुख प्रजापतियों में चौथे हैं । उनके पुत्र विश्रवा मुनि भी प्रजापति तुल्य ही हैं । उनके पुत्र परन्तप महात्मा रावण रक्षपति सप्तद्वीपपति हैं जो लोकविश्रुत महिदेव हैं । उनकी भार्या होना तो शत सहस्र जन्मों के पुण्य से ही होता है। " विधृष्टा ने कहा - “ कैसे आश्चर्य की बात है कि देवराट् इन्द्र ने जिसके चरण- चुम्बन किए, उसी का यह मानवी तिरस्कार करती है ! ” । विकटा ने कहा - “अरी, जिसने अनेक बार नाग, दैत्य , दानव, गन्धर्व सबको पराजित किया , वही सर्वजयी, विश्वपति , महात्मा तेरे पास आया और तूने उसका तिरस्कार किया ! फिर भी उसने तेरे हृत्खण्ड को निकालने का हमें आदेश नहीं दिया ! ” । विशालाक्षी ने कहा - “ तू हमें यह तो बता कि जिसकी आज्ञा से आज लोकपति दिक्पति भी कांपते हैं , तू उसी की पत्नी बनने का सौभाग्य छोड़ती है, यह तेरी कैसी मति है ? जिसके भय से सूर्य तपना छोड़ देता है, जिसकी आज्ञा बिना वायु नहीं बहता , जिसकी हुंकार - मात्र से वृक्ष फूल बरसाने लगते हैं , पर्वत से जल चूने लगता है, बादल सूख जाते हैं , तू उसी की पत्नी बनने के सौभाग्य से वंचित रहना चाहती है! अरी , रावण महिदेव अन्त: पुर की सभी स्त्रियों को स्वर्गीय सुख देता है। उसके अन्त: पुर में प्रचुर सुख - साधन हैं ।