रक्षपति विश्व की सारी ही सम्पदाओं का एकच्छत्र स्वामी है। उसके ऐश्वर्य की तुलना पृथ्वी पर कौन कर सकता है ? उससे पराङ्मुख हो तू उस दीन भिक्षुक राम ही के नाम की रट लगाए है ? अरी, वह तो स्वयं ही दीन - हीन , दु:खित है । तुझे वह क्या सुख दे सकता है ? तू अब उसकी आशा छोड़ और हमारी सीख सुन ! रक्षेन्द्र की अंकशायिनी हो देवदुर्लभ भोग भोग ! हम भी तेरी सेवा से प्रसन्न होंगी । ” सीता ने कहा - “ अरी राक्षसियो, तुम सब धर्म के विपरीत बात कहती हो । मैं तो अपने पति ही की अनुगामिनी हूं। मैं रघुवंश की वधू और विदेह वंश की कन्या हूं। मैं अपने ही में सुप्रतिष्ठ हूं । सो तुम भले ही मेरा हृत्खण्ड निकाल लो , परन्तु मैं विपथगामिनी नहीं हो सकती। " इस पर वनिता नामक राक्षसी ने कहा - “ हे सीते , तूने जो पति - प्रेम प्रकट किया है , वह ऐसी स्थिति में कष्टप्रद ही है। परन्तु तेरा पति - अनुराग प्रशंसनीय है, वह हम राक्षसिनियों के लिए नई वस्तु है। अरी, यहां तो स्त्रियों को विजेताओं का ही सेवन करना पड़ता है । परन्तु तेरा पति - धर्म भी अच्छा है । पर अब तेरा कल्याण तो इसी में है कि तू रक्षेन्द्र को प्रसन्न कर । वह अतुल ऐश्वर्यवान महासत्त्व है । प्रसन्न होकर वह तेरे पति का भी कुछ उपकार कर सकता है। तू उसे पति स्वीकार कर लंका में स्वच्छन्द विहार कर । " इस पर चण्डोदरी ने हंसकर कहा - “ अरी, इसे तुम्हारी सीख नहीं सुहाती। रक्षेन्द्र की आज्ञा से हमें इसका हृत्खण्ड निकालकर उसे निवेदन करना पड़ेगा । " " तब मध्यभाग का कोमल मांस मैं लूंगी। " “ और इसका भेजा मैं खाऊंगी। " “ अरी, बहुत दिन बाद हमें ऐसा कोमल स्वादिष्ट नर - मांस खाने को मिलेगा। तब तक लाओ, शोकनाशिनी मदिरा ले आओ, जिसे स्वच्छन्द पान कर आज हम पानगोष्ठी मनाएं । हमें रात्रि -जागरण करना पड़ा है । ” इतना कह सब राक्षसियां गटागट मद्य पीकर , उन्मत्त हो -होकर नाचने और हंसने लगीं । उन्हें इस प्रकार उन्मत्त और उत्तेजित देखकर उनकी यूथस्वामिनी त्रिजटा ने उन्हें घुड़ककर कहा - “ अरी दुष्टाओ, दूर हो तुम । अपना ही मांस खाओगी तुम ! यह स्त्री यदि एकव्रता है, तो इसमें बुरा क्या है ? तुम क्यों इसे दु: ख देती हो ? दूर हो यहां से ! ” यह सुन सब राक्षसियां बड़बड़ाती हुई वहां से चली गईं । त्रिजटा की यों सहानुभूति पाकर सीता रुदन करती हुई बोली - " हाय , मैं रक्षपति के अधर्म और अनीतिमूलक कठोर शब्द सुनकर भी अभी तक जीवित हूं ! सत्य है, अकाल मृत्यु कभी नहीं आती। मेरा यह हृदय भी पर्वत के समान कठोर है कि इस विपत्ति में फटता नहीं है । इस दुरात्मा रावण की बन्दिनी मैं यदि आत्मघात भी कर लूं तो क्या दोष है ! अन्तत: ये राक्षसियां भी तो मेरा वध करेंगी । हे माया कोशले, कौन जाने , उस माया - मृग ने उन दोनों भाइयों का वध कर डाला हो । हाय , माया - मृग के रूप में मेरे सम्मुख वह काल ही आया था । हा सत्यव्रत ! हा महाबाहो ! क्या आप नहीं जानते कि राक्षसियों द्वारा मैं वध की जाने वाली हूं, जिसकी अवधि दो मास रह गई है ? पर इस अवधि से ही क्या । हाय , मेरी अनन्योपासना, धर्म , भूमिशयन सभी तो व्यर्थ हुआ । मेरे अब तक किए व्रत , तप सब व्यर्थ हुए । मुझ अभागिनी के जीवन को धिक्कार है। मुझे आत्मघात ही करना उचित है । परन्तु
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