यहां मुझे शस्त्र या विष कौन देगा ? अथवा मैं अनार्या हूं , जो पति से पृथक् रहकर अब तक जी रही हूं । परन्तु कामी को न दूसरों के दु: ख का विचार होता है , न अपनी वंश -मर्यादा का । परन्तु वह चाहे मुझे भाले से छेद दे, खड्ग से टुकड़े-टुकड़े कर दे या आग में जला दे, पर मैं उस दुरात्मा रावण को नहीं स्वीकार कर सकती । क्या रघुकुलमणि वे दोनों भाई जीवित रहते मुझे भूल जाएंगे, जिन्होंने जनस्थान में चौदह सहस्र राक्षसों का वध कर डाला! लंका भले ही समुद्र से अलंघ्य हो , किसी अन्य का आक्रमण भले ही असम्भव हो , पर श्री रघुपति के बाण यहां के राक्षसों का रक्त अवश्य पान करेंगे। मैं समझती हूं कि मेरे यहां रहने की सूचना अभी उन्हें मिली ही नहीं है । हाय , कौन उन्हें बताएगा कि मैं इस दुरन्त रावण की कैद में हूं । आर्य जटायु को भी इस दुरन्त ने मार डाला । अरे रघुपति को बस खबर होने की देर है, फिर तो वे सारे संसार को राक्षसविहीन कर डालेंगे। वे लंका को भस्म कर देंगे , समुद्र को सुखा डालेंगे और इस चोर रक्षपति का कुल निर्वंश कर डालेंगे। आज मैं क्रन्दन कर रही हूं , परन्तु शीघ्र ही लंका के घर- घर में करुण क्रन्दन उठ खड़ा होगा । इस लंका में रक्त की धारा बह जाएगी । आज जो लंका उत्सवों से जगमगा रही है, वही लंका अपने स्वामी के नष्ट हो जाने पर विधवा के समान श्रीहीन हो जाएगी । परन्तु हाय , कहीं मेरे प्राणनाथ मुझ शोकविदग्धा के बिछोह में परलोक तो नहीं सिधार गए? “ हाय , वे महात्मा धन्य हैं , जिनका किसी वस्तु में मोह नहीं है । जो प्रिय - अप्रिय दोनों से परे हैं । अब तो मैं प्रियतम से बिछुड़ ही गई हूं । अब देखना है कि इन प्राणों का क्या होगा। अथवा प्राणों को त्यागकर सब दु: खों का अन्त ही कर दूं ! ” यह विचार कर सीता ने अपनी वेणी खोल , उसी के द्वारा फांसी लगाने के लिए दृष्टि उठाकर उस अशोक - वृक्ष की ओर देखा तो उसे वृक्ष के पत्तों में छिपे हनुमान जी दीख पड़े । उन्हें देख सीता भय और आश्चर्य से जड़ हो गई । उसने सोचा, श्वेत वसन धारण किए, तपाए स्वर्ण नेत्रों वाला यह तेजस्वी पुरुष कौन यहां छिपा बैठा है ? अशोक वृक्ष पर बैठे हुए मारुति ने रावण की बातचीत एवं राक्षसियों की डांट डपट तथा सीता का अनुताप सभी सुना था । अब उन्हें इस बात में तनिक भी संदेह न रहा कि यही राम - पत्नी वैदेही सीता है । यह वह सीता है, जिसकी तलाश में असंख्य वानर पृथ्वी पर दिशा -दिशा में घूम रहे हैं । आज मैंने इन्हें पा लिया । मैंने शत्रु के बल का भी पता लगा लिया और राक्षसराज रावण का प्रभाव , वैभव और उसका पुर भी देख लिया । भगवती साध्वी सीता के मन की पवित्रता भी देख ली । वे कैसी पति के लिए आतुर - आकुल हो रही हैं ! अब मैं कैसे इनके सम्मुख अपने को प्रकट करूं , कैसे इन्हें धैर्य बंधाऊं , कैसे इनके प्राणों की रक्षा हो ? इन राक्षसियों के सामने कैसे मैं सीता से बात करूं ! मैं यदि अपने को प्रकट कर इन्हें ढाढ़स न दूंगा तो ये अवश्य प्राण दे देंगी । फिर मैं जब वापस श्री राम की सेवा में जाऊंगा तो किस प्रकार सीता का सन्देश सुनाऊंगा? इन राक्षसियों का ध्यान दूसरी ओर लग जाए तो मैं कुछ कहूं । पर यदि मैं संस्कृत में बातचीत करूं तो वे मुझे रावण का दूत समझकर डर जाएंगी। अतः मुझे अर्थयुक्त मानवी भाषा में बात करनी चाहिए । कहीं ऐसा न हो कि ये डरकर चिल्ला उठे और अस्त्र - शस्त्र धारण करने वाली वे कालरूपिणी राक्षसियां यहां आ धमकें और चिल्ला -चिल्लाकर राक्षस प्रहरियों को सजग कर दें तथा वे उद्विग्न होकर शूल -बाण लेकर यहां पिल पड़ें । फिर तो बड़ा विघ्न उपस्थित हो जाएगा। और यदि
पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३४८
दिखावट