पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३५२

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छोटा भाई विभीषण है। उसने रक्षेन्द्र को बहुत समझाया कि वह मुझे लौटा दे। उसकी कन्या कल अपनी माता की प्रेरणा से मेरे पास आ यह सब बात कह गई है । सो तुम विभीषण से मैत्री साधना। एक और वृद्ध सुशील राक्षस बुद्धिमान् और विद्वान् है। उसका नाम अविन्ध्य है । वह रावण रक्षेन्द्र का विश्वस्त मन्त्री तथा प्रियजन है । उसने भी राक्षेन्द्र को समझाया है । सो तुम इन हितैषी राक्षसों से लाभ उठाना । " तब हनुमान् ने कहा - “ देवि , श्री राम इस समय प्रस्रवण पर्वत पर निवास कर रहे हैं । आप कहें तो मैं आपको इसी क्षण वहां ले चलूं । मैं आपको श्री राम के निकट उसी भांति ले जा सकता हूं , जैसे वायु यज्ञहवि को ले जाती है। परन्तु आपको मेरी पीठ पर दुर्लंघ्य सागर तैरना होगा । राक्षसों से मुठभेड़ की भी आशंका है । परन्तु आप साहस करें , तो मुझे भय नहीं है । " सीता ने सोच-विचारकर कहा - “ पुत्र , यह संगत न होगा । तुझे मुझे लेकर जाते देख राक्षस अवश्य तेरा पीछा करेंगे और तुझ निरस्त्र को घेर लेंगे। फिर कैसे तू युद्ध में मेरी और अपनी रक्षा करेगा ? यह भी संभव है कि युद्ध करने के समय मैं तेरी पीठ से गिर जाऊं अथवा आतंक से मूर्छित हो जाऊं । फिर मैं स्वेच्छा से किसी पुरुष का स्पर्श भी नहीं कर सकती हूं। रावण के शरीर का स्पर्श तो उसके बलात्कार ही से हुआ है। इसलिए सौम्य , तू जाकर उन देव - दैत्यजयी पराक्रमी राघवेन्द्र को सेना - सहित यहां ले आ । मैं तेरी चिरकृतज्ञ रहूंगी। " इस पर हनुमान ने कहा - “ आपकी बात युक्तिसंगत है, स्त्री -स्वभाव और धर्म के के भी अनुकूल है। यदि मैं पीठ पर आपको ले भी चलूं तो यह भी संभव है कि सौ योजन समुद्र लांघ ही न सकू । फिर आप तो पीठ पर सौ योजन समुद्र के पार नहीं जा सकतीं । परपुरुष स्पर्श की बात भी धर्मसम्मत है । आपकी शोचनीय दशा देखकर मैं व्याकुल हो गया था , इसी से मैंने यह निवेदन किया था । अब आप अपना कोई चिह्न मुझे दीजिए , जिसे देखकर श्री राम यह समझ लें कि मुझे आपके दर्शन हो गए। " हनुमान के ये सारगर्भित वचन सुन सीता हर्ष- गद्गद होकर कहने लगीं - “ हे वीर . मैं तुझे एक गुप्त बात बताती हूं, उसे सुनकर ही राघवेन्द्र को प्रतीत हो जाएगा । सुन , चित्रकूट के उत्तर - पूर्व वाले भाग में जो मन्दाकिनी नदी बहती है, वहां तपस्वियों के आश्रम के निकट जब मैं निवास करती थी , तब एक कौवे ने मुझे चोंच मार दी थी , जिससे खिन्न होकर मैं रोने लगी । इस पर क्रुद्ध होकर उन्होंने कुश से उस कौए की दाहिनी आंख नष्ट कर दी थी । बस तुम यही वृत्तान्त उन्हें सुना देना और मेरी बातें उनसे इस प्रकार कहना कि वे शीघ्र ही मेरे कष्टों को दूर करने के लिए प्रयत्नशील हो जाएं । ” इसके बाद उन्होंने कपड़े में बंधी चूड़ामणि खोलकर हनुमान को देते हुए कहा - “ इसे राघवेन्द्र भली- भांति पहचानते हैं । इसे देखकर उन्हें तीन व्यक्तियों की सुधि आएगी -माता, पिता और मेरी। " । तब अच्छी तरह सीता को आश्वासन दे मारुति ने उस चूड़ामणि को अपनी उंगली में धारणकर तथा सीता की प्रदक्षिणा कर उन्हें प्रणाम कर उत्तर दिशा में प्रस्थान किया ।