पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३७४

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99. शरण्यं शरणम् “निवेदयत -निवेदयत ! सर्वलोकशरण्याय राघवाय यदह रावणस्यानुजो विभीषणश्चतुर्मी रक्षोभिस्सह भवन्तं शरणमागतः। ” ___ गदापाणि विभीषण ने राम- कटक में आकर उच्च स्वर से ये शब्द कहे । वानरों ने भय और संदेह से इन पांचों नवागन्तुक राक्षसों को घेर लिया । वे उन्हें सुग्रीव की सेवा में ले चले । विभीषण का अभिप्राय जानकर सुग्रीव ने राम के पास आ निवेदन किया - " राघवेन्द्र, आपके शत्रु रावण का भाई विभीषण अपने चार मंत्रियों सहित आपकी शरण में यहां उपस्थित है । परन्तु सेना के व्यूह , शत्रु - सम्बन्धी मंत्रणा, नीति और राजदूतों के मामले में हमें सावधान रहना चाहिए । यह शत्रु रावण का प्रेरित गुप्तदूत भी हो सकता है । वह जाति से राक्षस , जन्म से शत्रु का भाई है, अतः स्वयं शत्रु ही है। इसका भला विश्वास कैसे किया जा सकता है ? इससे मेरा मत यह है कि इसका निग्रह हो । इसे बन्दी बना लिया जाए । " राम ने कहा - “ हे मित्र, तूने सारगर्भित और युक्तिपूर्ण वचन कहे । परन्तु शत्रु यदि शरण में आकर विनम्र प्रार्थना करे तो वह भले ही क्रूरकर्मा हो , सत्पुरुष को अपने प्राणों का मोह छोड़कर उसकी रक्षा करनी चाहिए । मित्रभाव से आए हुए इस विभीषण को मैं कैसे त्याग सकता हूं! वह कपट भी करे , तब भी नहीं । सब प्राणियों को अभय देना ही मेरा व्रत है। जो एक बार मेरी शरण में आकर कहे - मैं तेरा हूं - उसे सब भयों से मुक्त करना ही मेरा कर्तव्य है । वह शत्रु का भाई विभीषण हो या स्वयं शत्रु रावण ही हो , उसे मेरी ओर से अभयदान दे मेरे पास ले आ । " रामाज्ञा सुनकर सुग्रीव ने कहा - “ राघव , आप धर्मज्ञों की शीर्षमणि हैं । अत : आपने अपने योग्य ही कहा । अनुमान और कल्पना के बल पर मेरा मन भी यही कहता है कि विभीषण शुद्धहृदय है । मैंने उसे भली- भांति जांच लिया है। विभीषण देश - काल को देख समझकर ही दोष -गुण पर विचार कर रावण को छोड़कर आपकी शरण आया है । उसके संभाषण से भी उसका दुष्ट मनोरथ नहीं जान पड़ता । उसकी मुखश्री विमल है, भीति और आशंका से रहित है । मैं तो यह समझता हूं कि बालि का मरण और आपके द्वारा मेरी राज्य प्रतिष्ठा की वार्ता सुनकर ही यह लंका का राज्य पाने की अभिलाषा से आया है । मैं तो यही समझता हूं कि महाप्राज्ञ विभीषण शीघ्र ही हमारा विश्वस्त मित्र बन जाएगा ! " “ तो मित्र, रक्षराज विभीषण को मेरी सेवा में उपस्थित कर ! " राम की आज्ञा से सुग्रीव का संकेत पा हनुमान् विभीषण और उनके चारों मंत्रियों को श्री राम की सेवा में ले आए । राम के सम्मुख आते ही विभीषण ने अपने मन्त्रियों सहित भूपात कर राघवेन्द्र को साष्टांग दण्डवत् करके निवदेन किया