पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

से गेरू झरता है। तब वीरवर ने अन्तक के समान लक्ष्मण पर सहस्र भार का शूल फेंका। पर लक्ष्मण ने उसे मार्ग में ही काट डाला। यह देख कुम्भकर्ण धन्य - धन्य कहकर बोला - “ अरे रामानुज , तेरा पराक्रम स्तुत्य है। पर मैं अभी दाशरथि राम से युद्ध चाहता हूं। " - “ वीरेन्द्र के ये वचन सुन राम ने कालबाण हाथ में लेकर युद्धक्षेत्र में प्रवेश किया । हाय , अब आगे क्या कहूं ? " ___ “ कह- कह, मैं सुन रहा हूं , तू वैरी राम का पराक्रम बखान कर। " ___ “ कैसे कहूं ? ज्यों ही राम ने अपना कुल - गोत्र कहकर धनुष -टंकार की और वीरेन्द्र ने लाल - लाल आंखें कर , काल की भांति छलांग मारी, त्यों ही उस वैरी राम ने बाणों से वीरेन्द्र को ढांप लिया । दाशरथि का हस्तलाघव देख रक्षेन्द्र विस्मित हो गया । क्षतविक्षत हो , वानरों को मारकर वहीं भक्षण करने लगा । इस बीभत्स -व्यवहार से संत्रस्त हो वानर ‘ त्राहि माम्, त्राहि माम् करने और भागने लगे। फिर तो ऐसा युद्ध हुआ कि देव - दैत्य स्तम्भित हो गए। अब राम -लक्ष्मण ने फुर्ती से शत -सहस्र बाणों से महातेज के दोनों हाथ काट डाले। तब वेदना और कष्ट से मुंह फैलाकर कुम्भकर्ण दोनों को खाने दौड़ा । इस पर लक्ष्मण ने उसका मुंह बाणों से भर दिया । पैर भी काट डाले । इसी समय दाशरथि ने ब्रह्मास्त्र धनुष पर रखकरफेंका जिससे रथीन्द्र का सिर कटकर चार धनुष दूर पृथ्वी पर जा गिरा । इसके बाद मुहूर्त - भर कबंध ने युद्ध किया । अन्त में समरांगण में उसका भूपात हुआ । हे राक्षस - कुलपति , रक्षेन्द्र , महातेज कुम्भकर्ण के साथ सभी राक्षस -तिल -तिल करके कट मरे । भाग्यदोष से अकेला मैं ही स्वामी को यह दारुण संदेश देने को जीवित बच गया हूं । मैं महातेज मृत्युंजय महाराज कुम्भकर्ण को असंख्य योद्धाओं के साथ शर - शय्या पर सोता छोड़ यहां आया हूं । हे महाराज, मेरा वध कराइए। " रावण ने गहरी सांस खींचकर कहा - “ धन्य है वीरधारी लंका! हे वीर भ्राता, आज तू जिस वीर - शय्या पर सो रहा है, उस पर सोने की कौन महाभाग इच्छा न करेगा! किन्तु हे वीरेन्द्र, तेरे बिना मैं जीवित कैसे रहूंगा ? अरे वीर, एक बार उठकर शत्रुदल को अतल जल में डुबा दे । देखो, यह वीरधात्री कनकपुरी वीरशून्य हो गई , जैसे ग्रीष्म में वनस्पति पुष्पशून्य और नदी जलरहित हो जाती है। " कुछ देर आंसू बहाकर रावण ने फणीन्द्र की भांति सांस भरते हुए कहा - “ हे भ्राता , तेरे पराक्रम से मेरा वंश उज्ज्वल हो गया । अब इस काल - समर में मैं किसे भेजूं? कौन राक्षस - कुल का मान रखेगा ? अब मैं ही जाऊंगा। अरे! लंका के विभूषणों, आओ, युद्ध-साज सज लो । देखूगा उस राघव को , उसमें कितना बल - वैभव है । अब पृथ्वी रावण या राम से रहित होने वाली है । उठो रे राक्षस वीरो, उठो , देव - दैत्य विजेताओ, उठो ! जगज्जयी राक्षसकुमारो, आज मैं काल का साम्मुख्य करूंगा। ” इतना कहकर रावण ने स्वर्णसिंहासन त्याग दिया । मेघ - गर्जन की भांति दुन्दुभि बज उठी , जिसके भैरव रव से देव , दानव, नर , नाग त्रस्त हो गए । योद्धा अंग पर शस्त्र धारण करने लगे । वक्रग्रीव घोड़े अश्वशाला से निकलने पर हिनहिनाने लगे । सुनहरी छत्रों से सुशोभित सहस्रों रथ घंटियों की झंकार करते हुए बढ़ चले । वीर सिरों पर लौहावरण पहन , बड़ी - बड़ी अमोघ ढालें हाथों में लिए, सुनहरी म्यानों वाली तलवारें कमर में बांध , शरीर को लौहकवच से आवृत्त कर श्रेणीबद्ध होने लगे । हाथों