पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४१०

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करता है, त्रिभुवन में कोई वीर शस्त्र रहते उसका वध नहीं कर सकता , इसलिए उससे निरस्त्र ही वध करने का संकेत रामभद्र को देना । सीता का असह संताप अब मुझे भी सह्य नहीं है । रावण अब अपने ही चरित्र- दोष से विनष्ट होगा । जाओ देवेन्द्र, लंका का सौभाग्य सूर्य अब अस्ताचल में डूब चुका । ” । इन्द्र ने आनन्दमग्न हो उमा की वन्दना की । अम्ब ने शची को अंक में भर विदा किया । देवलोक में पहुंच इन्द्र ने देवसारथि मातुलि को बुलाकर कहा - “ हे बहुज्ञ , तू अभी मेरा दिव्य रथ लेकर लंका में चला जा । वहां राम - कटक में पहुंचकर इन अस्त्रों को अत्यन्त सावधानी से रामभद्र की सेवा में पहंचाकर निवेदन कर कि इन्द्रलोक -निवासी आपके मंगल की कामना करते हैं और रुद्रप्रिया शैलबाला उमा आप पर प्रसन्न हैं । इन दिव्यास्त्रों से निरस्त्र मेघनाद का वध कीजिए , शंका को मन में स्थान न दीजिए तथा तू भी रथसहित रामभद्र की सेवा में रह और मेरा अनुरोध निवेदन कर कि आपके पिता महात्मा दशरथ देवप्रिय थे। उन्होंने देवों के लिए युद्ध किए थे। मैं शम्बर का वध उनकी सहायता के बिना नहीं कर सकता था । वास्तव में शम्बर वध का श्रेय आपके पिता महात्मा दशरथ ही को है । अब रावण का वध आपके हाथ से हो , यही सम्पूर्ण देवकुल की कामना है । यह दुरात्मा रावण नृवंश की सारी ही मर्यादा को उलट - पलट रहा है । निरन्तर बारह दारुण देवासुर संग्राम कर, देवों ने दैत्यभूमि को सुरलोक बनाया है । अब पृथ्वी पर चार ही प्रबल अनार्य देवद्विष नृपति थे। एक वैजयंतीपुरी का तिमिरध्वज शंकर , जिसे पांचालपति दिवोदास के साथ आपके यशस्वी पिता दशरथ ने सम्मुख समर में हनन किया । दूसरा वर्चिन , जिसकी एक लाख दानव - सैन्य को दिवोदास के पुत्र सुदास ने महासमर में समूल नाश कर मार डाला , यद्यपि अनेक आर्य राजाओं ने भी वर्चिन का साथ दिया था । तीसरा भेद , जिसने वर्चिन की मृत्यु के बाद सुदास की अधीनता स्वीकार कर ली है। अब केवल रह गया यही महाबली रावण , जो इन सबसे भयानक , दुर्जय और दुरन्त है । सो हे रामचन्द्र , आप इसका वध करके अनार्य जातियों का समूल उच्छेद कीजिए। आपके इस विकट संग्राम के परिणाम पर ही आर्यों और देवों का अस्तित्व निर्भर है। कदाचित् इस बार यह रावण जीवित बच गया तो निश्चय ही न आर्यावर्त रहेगा , न देवलोक। त्रिलोक का नृवंश राक्षस हो जाएगा । " देवेन्द्र का संदेश ध्यान से सुन , दिव्यास्त्रों को सावधानी से ले, महाप्रज्ञ देवसूत मातलि ने बद्धांजलि हो देवेन्द्र की प्रदक्षिणा कर प्रणाम किया और दिव्य रथ पर चढ़ वह लंका की ओर चला । सहस्रों घंटियों की झनकार से उस समय वातावरण मुखरित होकर जैसे राम का जय -जयकार कर उठा ।