112. अभिसार विधुमुखी- सुलोचना , दानवनन्दिनी प्रमिला प्रियतम के जाते ही कटे वृक्ष की भांति पृथ्वी पर गिर गई । किंकरी दासियों ने उसे प्रबोध दिया । पर वह विरह -विदग्धा खण्डिता मानिनी बाला नागिन की भांति लम्बी - लम्बी सांसें लेती हुई अश्रु बहाने लगी । उसका केशजाल अस्त -व्यस्त हो गया । मणिमाल उसने उतार धरी। बांसुरी, वीणा , मृदंग , मुरज सब नीरव हो गए। कोकिलकण्ठी गायिकाएं स्तब्ध हो गईं । स्वामिनी के विरह -विदग्ध हृदय के हाहाकार को देख प्रमदवन की सभी प्रमदाएं अधोमुखी हो रोने लगीं । रात हुई तो उसने वसन्त - सी सौरभवाली सखी वासन्ती की ग्रीवा में भुज - मृणाल डालकर गहरी- गहरी उसांसें लेते हुए कहा - “ अरी सखी , देख तो यह रात्रि कालभुजंगिनी की भांति मुझे डंसने आई है। अरी कह तो , इस रीति रात में अरिन्दम कहां हैं ? वह तो अभी आऊंगा कहकर गए थे। अभी तक तो आए नहीं । यह विलम्ब तो अब सहा नहीं जाता । अरी , लंका तो शत्रु मानव ने घेर रखी है । उसने त्रिलोकजयी , महातेज कुम्भकर्ण को मार डाला है। सुना है, सागर- तीर पर उस पुण्य पुरुष का शरीर निर्जीव पड़ा है । अरे, यह तो बड़ी भयानक बात है ! ” सखी ने कहा - “ देवि , चिन्ता न करो, अरिन्दम इन्द्रजित् को पृथ्वी पर किसका भय है ? वीरवर सुरासुर - वन्द्य हैं , अभेद्य हैं , रुद्र - वरलब्ध सिद्धपुरुष हैं । उनसे कौन युद्ध कर सकता है । जब तक महारथी समर जय करके नहीं आते हैं , तब तक हम दासियों को आप माला गूंथने का आदेश दीजिए, अरिन्दम के प्रमद- वन में आते ही विजय -माल वीर पति के कण्ठ में डाल देना । " ___ कौमुदी सरोवर - सलिल में नवोढ़ा नायिका के समान अवगुण्ठनवती - सी लग रही थी , भ्रमर गुंजार कर रहे थे, कोयल कूक रही थी , पुष्प - सौरभ - सनी वासन्ती वायु बह रही थी । परन्तु पतिप्राणा, बाला प्रमिला की आंखों में अन्धकार ही छा रहा था । उसने कहा - “ अरी, मैं तो विरह -ज्वाला में जल रही हूं । चन्द्रमा , चन्दन , चांदनी मेरे अंग - अंग में दाह कर रहे हैं । हाय , प्रियतम के जाते ही विश्व उलट गया । अरी सखी, मैं नहीं सह सकती । तू अभी लंका चलने की तैयारी कर, जिससे मैं प्राणेश्वर को प्राप्त कर सकू । ” सखी ने कहा - “ देवि , तुम लंका में कैसे जाओगी? दुर्लंघ्य राम- कटक ने लंका को घेर रखा है । अनगिनत लौहवर्मधारी अस्त्रपाणि वरिष्ठ वानरों का लंका के द्वार पर पहरा है । " प्रमिला ने गुस्से होकर कहा - “अरी, समुद्रगामिनी नदी की धारा को विमुख करने की सामर्थ्यकिसमें है? मैं दानवनन्दिनी, राक्षस -कुलवधू हूं। जगज्जयी महिदेव राक्षसपति रावण मेरा श्वसुर और इन्द्रजित् मेरा पति है । मैं क्या वैरी राम से डरकर प्रिय मिलन की इच्छा छोड़ दूंगी ? देगी, आज मैं राम का भुजबल देखूगी। देखूगी , कौन मुझे लंका में प्रवेश
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