113. देवदूत इसी क्षण एक चमत्कार हुआ। पश्चिम दिशा उज्ज्वल प्रकाश से भर गई । गम्भीर , मेघगर्जन - ध्वनि सुन राम ने भीत होकर मन - ही -मन कहा - यह अनभ्र वज्रगर्जन कैसा ? यह बिना ही दामिनी के प्रकाश कैसा ? ___ सहसा देवसारथि मातलि ने राम के सम्मुख आकर कहा - “ दाशरथि राम की जय हो , मैं मातलि , देवेन्द्र का सूत , देवेन्द्र का सन्देश लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हूं । दाशरथि प्रसन्न हों , देवकुल आपके अनुकूल है । हेमवती उमा भी आप पर सदय हैं । वे सब आपकी जय के अभिलाषी हैं । देवेन्द्र ने इसी कारण मुझे भेजा है । " राम ने खड़े होकर कहा - “ आपके आगमन से तथा देवेन्द्र के और अम्ब उमा के अनुग्रह से सम्पन्न होकर मैं कृतार्थ हुआ। आपको बहुत कष्ट हुआ होगा । देवदूत के बैठाने योग्य मेरे पास स्वर्णासन नहीं है, तथापि मुझ दास पर अनुग्रह कर इस आसन पर बैठिए । मैं अर्ध्य-पाद्य निवेदन करता हूं। ” इतना कह राम ने अपने हाथ से कलश उठाकर , मातलि को अर्घ्य-पाद्य से सत्कृत कर, आसन पर बैठाया , मधुपर्क दिया , तब देवेन्द्र की कुशल पूछी और कहा - “ मुझ दास को देवेन्द्र की क्या आज्ञा है ? " ___ स्वस्थ होकर मातलि ने कहा - “ स्वस्ति रामभद्र, यह तो तुम्हें ज्ञात है कि देव , आदित्य और आर्यों के चार शत्रुकुल थे, जिनमें तिमिरध्वज शम्बर का देवमित्र दिवोदास ने तुम्हारे यशस्वी पिता दशरथ की सहायता से निरन्तर चालीस वर्ष युद्ध कर , उसके सौ दुर्गों का दलन कर हनन किया । इसके अनन्तर दुर्जय वर्चिन को , उसकी एक लाख दानव सैन्य का हनन कर देवपुत्र सुदास ने समूल नाश कर डाला । इसके बाद महाविक्रमशाली भेद सुदास का शरणागत हो गया । अब रह गया है केवल यह रावण, जो अपने को जगदीश्वर महिदेव , जगज्जयी कहता है। तुम जानते हो , इसके दुरन्त पुत्र मेघनाद ने देवेन्द्र को बन्दी कर उनसे पृथ्वी के नरपतियों के सम्मुख दासकर्म कराया था । तभी से देवेन्द्र संतप्त हैं । जब तक यह दुरात्मा मेघनाद नहीं मरता , तब तक देवलोक में देवराट और देव दुःखित हैं और जब तक जगज्जयी रावण जीवित हैं , आर्य, आदित्य , देव , देवर्षि, ब्रह्मर्षि सभी का अस्तित्व खतरे में है । तो यही विचार, तुम्हारा संकट देख , देवेन्द्र धूर्जटि के सान्निध्य में कैलास शिखार पर गए थे और वहां प्रसन्नतामयी अम्ब उमा को प्रसन्न कर , नागपाशयुक्त तूणीर और नागदमन धनुष , जिससे कुमार कार्तिक ने स्वर्गजयी तारक का वध किया था , तुम्हारे लिए मांग लाए हैं । साथ ही इन्द्र ने रौद्रतेजपूर्ण यह अभेद्य ढाल और विकराल खड्ग भी दिया है। सो राघव , तुम इन दिव्यास्त्रों को ग्रहण कर , इन दुरन्त राक्षसों का समूल विध्वंस कर दो । इस समय रावण हततेज है। अत : यही समय है , जब रावण सपरिवार मारा जा सकता है । अब उसके सब विषदन्त झड़ चुके हैं । यह दुराचारी मेघनाद शेष है, सो आज तुम
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