114. समागम लंका के सिंह- द्वार पर दुन्दुभि बज उठी । असमय में सिंहपौर पर दुन्दुभि निनाद सुन प्रहरी राक्षसों के गुल्म भी गर्जना करने लगे। असमय मेघ गर्जना के समान गर्जन -तर्जन सुन द्वार -रक्षकों का गुल्मपति विरूपाक्ष और द्वारपालों का नायक तालजंघ गदा उठाकर द्वार की ओर दौड़ चले । गुल्मपतियों ने गुल्मों को तुरन्त तैयार होने के आदेश दिए , घोड़े हिनहिनाने लगे , हाथी चिंघाड़ने लगे, रथों का घरघर शब्द होने लगा । दरन्त कौन्तिक कुन्त घुमाने लगे । धनुर्धर प्राचीरों और कंगूरों पर चढ़ बाण- संधान करने लगे । जनरव और गर्जना से उस अर्धनिशा में लंका हिल उठी । जैसे अभी -अभी ज्वालामुखी का प्रलयंकर विस्फोट हुआ हो , उसी भांति विद्युत् -प्रभा से जगमग मशालों को लिए , शूलधारिणी वामादल को वानर - सैन्य से सिंहद्वार की ओर आते देख राक्षस - दल चल -विचलित हो गया । द्वार के सम्मुख आ दण्डधारिणी मालिनी ने पुकारकर उच्च स्वर में कहा - “ अरे भीरुओ, तुम किस पर अन्धकार में अपने शस्त्र तान रहे हो ? आंखें खोलकर देखो , हम राक्षस- शत्रु नहीं , राक्षस - कुलवधुएं हैं । अरिन्दम वीरेन्द्र इन्द्रदमन की वामांगी दानवनन्दिनी प्रमिला सुन्दरी पतिपद पूजने लंका में आई है । भयत्रस्त राम ने हमें निरापद मार्ग दे दिया है । अरे मूढ़ो, अब झटपट तुम द्वार खोल दो ! ” प्रहरियों ने द्वार में बड़ी- बड़ी चाभियां घुमाईं, चक्र घुमाए, यन्त्रचालित किए । लौहवर्म आच्छादित लंका के सिंहद्वार तुरन्त खुल गए। वामादल ने आनन्द से लंका में प्रवेश किया । दीपशिखा पर जैसे पतंगा टूटता है उसी प्रकार चारों ओर से पौरजनों ने वामादल को घेर लिया । कुलवधुएं मंगलध्वनि करके पुष्पवृष्टि करने लगीं । बन्दी बाजे बजाकर वन्दना करने लगे वाद्यंकरी और विद्याधरी वीणा , बांसुरी और मन्दिरा बजाकर नृत्य करने चलीं, अश्व हिनहिनाते वामादल के खड्ग कोशों में झनझनाते चले । रक्षकुल की स्त्रियां झरोखों से और गोखों से सती सुलोचना को देखने दौड़ चलीं । __ पति - मन्दिर में पहुंचकर सुन्दरी प्रमिला प्राणपति से ऐसे मिली जैसे मणिधारी फणि अपने खोए मणि से । अरिन्दम इन्द्रजित् ने प्रियतमा को हृदय में समेटकर हंसते हुए कहा - “ यह क्या रक्तबीज का नाशकर विधुमुखी दुर्गा निज धाम आई है ? हे देवि , आज्ञा हो तो यह दास तेरे पदतल में गिरे । " सुलोचना ने अपने मृणाल - भुज अरिन्दम के कण्ठ में डालकर कहा - “ हे प्रिय , तुम्हारे पद - प्रसाद से यह किंकरी भव विजयिनी है, किन्तु यह तुम्हारा वियोग नहीं सह सकती । दु:सह वियोग की ज्वाला से वह भस्म हो रही है। अरे निर्दयी, तुम कैसे मुझे अकेली सूनी रात में छोड़ चले आए? ओ प्रियतम , जिसे मन सदा चाहता है, मैं उसी के पास आई हूं । दुरारोध वर्षा नदी ने सागर के हृदय में प्रवेश किया है। " “ तो प्रिये , अब आनन्द की रात्रि व्यतीत कर ! "
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