पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रमिला सुन्दरी ने मन्दिर में प्रवेश किया । वीर - वेश त्यागा। स्नान - मज्जन किया । रत्नमय अंचल का कौशेय धारण किया । पीन स्तनों पर कंचुकी कसी। कमर में मणिमेखला धारण की । हीरों का हार कण्ठ में पहना । हृदय पर मुक्तामाल धारण की । भाल पर हीरकमणि - ग्रथित मांग दी । कानों में नीलमणि के कुण्डल पहने । उस समय सहस्त्र मणिदीपों के उज्ज्वल प्रकाश में मणिमूर्ति के समान प्रभामयी, दीपशिखा- सी ज्योतिर्मयी, कुसुम - गुच्छ के समान सुषमामयी और जीवन के समान प्रेममयी प्रियतमा दानवनन्दिनी सुलोचना प्रमिला को देख राक्षस - चूड़ामणि मेघनाद आनन्द के समुद्र में डूबकर सुध - बुध खो बैठा । रणरंग , वैरी राम , विपन्न लंका, शोकमग्न राक्षसेन्द्र रावण - सभी को भूल मेघनाद उस त्रैलोक्यदुर्लभ रूपसुन्दरी दानवेन्द्रनन्दिनी प्रमिला को हृदय से लगा, तृप्त हो उसका यौवनामृत पान करने लगा। जैसे चन्द्र -दर्शन से समुद्र में ज्वार आता है , उसी भांति विरहदग्धा बाला प्रमिला भी इस प्रकार पतिपर्यक पर बिखर गई , तब वह ऐसी थी जैसे शरद् के पूर्ण चन्द्र की चन्द्रिका धवल सौध पर बिखरती है । बन्दी गान कर रहे थे , गन्धर्वियां नृत्य कर रही थीं , वादक विविध वाद्ययन्त्र बजा रहे थे। फव्वारे जलराशि उछाल रहे थे, सुरभित वसन्तानिल बह रहा था , वसन्त ऋतु वहां मूर्त हो रही थी और अनिन्द्य सुन्दरी प्रमिला मणिपात्र में सुवासित मद भर - भरकर प्राणाधिक प्रियतम के होठों से लगा, मृणाल भुज कण्ठ में डाल , वक्ष सटा , अपना अधरामृत भी पात्र में लगा अधरामृत के साथ सुरामृत को पिलाती हुई प्राणप्रिय पति को आनन्द सागर में झकझोर रही थी । __ ऐसे सुख - सागर में डूबकर अरिन्दम सो गया । उषा का उदय हुआ। राजद्वार पर दुन्दुभि बजने लगी । पक्षी जगकर कलरव करने लगे । बन्दियों ने विरुद -गान किया । वीरेन्द्र चूड़ामणि मेघनाद ने जगकर देखा - उसके वक्ष पर सोती हुई सुन्दरी प्रमिला ऐसी लग रही थी , जैसे कसौटी पर सोने की लकीर । उसने भुजपाश में भरकर प्रियतमा का चुम्बन लिया और कहा - “ उठ प्रिये, यह देख , प्राची में श्वेत रश्मि फैल गई। वनकुसुम झूम - झूमकर हंसते हुए तेरा आह्वान कर रहे हैं । उठ दैत्यराज- नन्दिनी , आज विश्व में अघट घटना घटने वाली है । आज समुद्र को शिलाओं से बांधने का दुष्कर्म करने वाले दाशरथि राम को उसके भ्राता सौमित्र के साथ मारकर , मैं उसका हृत्खण्ड पूज्य पिता की सेवा में अर्पण कर परन्तप का ताप दूर करूंगा। उठ चारुलोचने , उठ सुहासिनी ! मुझे परिरम्भण दे, अपने प्यार से सम्पन्न कर ! " सुलोचना प्रमिला के प्रस्पन्दमान अर्ध मुकुलित सुलोचनों में कृष्ण तारिका झांकती - सी ऐसी दीख पड़ी , जैसे मधुलोलुप षडंध्रि रात को पंकज में कोषबद्ध हो गया हो और अब उषा - वेला में पंकज - कोष खुलते ही दीखने लगा हो । उसने नेत्रारविन्द खोले , लज्जा से नमित हो , वस्त्रों को ठीक किया । फिर मन्दहास करती हुई व्याकुल दृष्टि से प्रियतम को निहारकर बोली - “ क्या आज इतनी जल्दी प्रभात हो गया , वह सुख - रात्रि इतनी शीघ्र विलीन हो गई ? " मेघनाद ने प्रिया का चुम्बन लिया । फिर उसकी अलकावलियों से खेलते हुए कहा- “प्राणसखी, तू मेरे भाग्य का सर्वोत्तम फल है , मेरे प्राणरूपी सूर्यकान्त की तेज रश्मि है । अब चल , विलम्ब का काम नहीं। जननी के पादपद्य में प्रणाम कर आशीर्वाद ग्रहण करें ।