पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४२६

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सम्मुख, एक मुहूर्त में ही ले जाकर खड़ा कर सकते हैं । " __ " तो आर्य, अब विलम्ब मत कीजिए, अनुमति दीजिए, उषा का उदय हो रहा है । " राम ने आर्द्रनयन होकर कहा - " भाई, जिसे देखकर देव , दैत्य सभी भयभीत होते हैं , जिसने देखते ही वानर - कटक से रक्षित हमें बात की बात में शरविद्ध कर दो - दो बार भूपतित किया , उसके सम्मुख तुम्हें कैसे जाने दूं ? जिस विषधर के विष से देव - नर तुरन्त भस्म हो जाते हैं , कैसे मैं उसकी बांबी में तुम्हें अकेला भेजूं ? अरे सौमित्र , सीता के उद्धार का अब कुछ प्रयोजन नहीं है। मैंने व्यर्थ ही समुद्र पर सेतु बांध शत्रु -मित्र के रक्त से पृथ्वी को रंगा । भाग्य - दोष से मैंने राज्यपाट, माता-पिता , बन्धु - बान्धव सभी को खोया । इस मेरे अन्धकारावृत्त जीवन में एक जनकसुता सीता ही दीपशिखा थी , सो अदृष्ट ने उसे भी बुझा दिया । अब एक तुम्हीं मेरी आशा के आधार हो , तुम्हें मैं नहीं खोऊंगा। चलो सौमित्रि , वन को लौट चलें । " लक्ष्मण ने कहा - “ आर्य, ये कैसे वचन मैं आपके मुंह से सुन रहा हूं ! लंका का सौभाग्य सूर्य डूब गया । लंका के जगज्जयी सुभटों के शवों को गिद्ध और शृगाल खा रहे हैं । लाइए देवास्त्र , मैं अभी - इसी क्षण नराधम रावणि का हनन करता हूं । " विभीषण ने अब धीर स्वर में कहा - " राघव , सौमित्रि ठीक कहते हैं , मैं उनके साथ हूं , आप चिन्ता न करें । सरमा का कूट निवेदन बहुमूल्य है । यह भगवती की शुभचिन्तिका किंकरी है, इस पर संदेह का कोई कारण नहीं है । यह कूट योग हमें चूकना नहीं चाहिए। " "मित्र, ” राम ने संतप्त स्वर में कहा - “ जब मैंने पिता की आज्ञा से वनगमन किया तो वीरवर लक्ष्मण तरुण यौवन में सब सुखों को तिलांजलि दे, स्वेच्छा से मेरे पीछे वन को चल दिए । तब माता सुमित्रा ने नयनाश्रुपात कर कहा था - राम, मेरे इस नयन - मणि को , मेरे हृदय - धन को यत्न से रखना! सो मैं अब इस भ्रातृरत्न को कैसे संकट में डालूं , अथवा परिणाम जो हो सो हो , मैं भी तुम्हारे साथ चलूं ? " । विभीषण ने कहा - “ महाराज, आप कातर न हों । धैर्य के कुछ क्षण ही आते हैं , जब धैर्यवान की परीक्षा होती है। सरमा का कूट योग बहुमूल्य है, अब आप हमें आज्ञा दीजिए। ये क्षण व्यर्थ ही जा रहे हैं । " राम ने मस्तक नवा आंखों से अश्रु गिराए और कहा - “लाओ देवास्त्र , मैं अपने हाथों सौमित्रि का वीर - शृंगार करूंगा। " उन्होंने दिव्य कवच धारण कराकर , कमर में कृपाण , पीठ पर उमादत्त ढाल , हाथ में नागसिद्ध दिव्य धनुष , पीठ पर अक्षय तूणीर कस दिया । मस्तक पर लौह त्राण सजा दिया । सौमित्रि ने राघवेन्द्र की प्रदक्षिणा करके साष्टांग दण्डवत् किया और कहा - " आर्य, आशीर्वाद दीजिए, मैं आज दुर्धर शत्रु का संहार करूं ! " __ " भाई , जैसे पीठ दिखाते हो , वैसे ही मुंह दिखाना । मित्र रक्षेन्द्र विभीषण मेरे जीवन और मृत्यु तुम्हारे ही हाथ हैं । मैं अपना रत्न तुम्हें सौंपता हूं । अब और क्या कहूं ? मातलि , सौमित्रि को तम ले जाओ और ऐसे ही ले आओ, देव ! " इतना कह राम विकल भाव ले उद्विग्न मन खड़े रहे । सौमित्रि और विभीषण दिव्य देवरथ में बैठ द्रुतगति से , निकुम्भला यज्ञागार में नीलपद्म की मन्त्रपूत आहुति देते हुए यज्ञदीक्षित , रावणि का निरस्त्र वध करने चल पड़े ।