पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४३५

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120. देवानुग्रह रुद्र ने क्रूद्ध नि :श्वास छोड़कर कहा - " हेमवती प्रिये , तूने यह क्या दुष्कृत्य कर डाला ? मेरे अनुगत किंकर रावण और प्रिय रावणि का अहित करने को दिव्यास्त्र दे दिए ! अब रावण क्या समझेगा! महातेज बाण सुनेगा तो क्या समझेगा भला ! " ___ “ महादेव प्रसन्न हों , मुझे देवहित प्रिय है । देवेन्द्र ने शची - सहित कैलास में आकर मेरी स्तुति की । आपको भी तो देव प्रिय हैं । रावण और उसके पुत्र पर आपका अनुग्रह है, यह तो ठीक है , परन्तु क्या देव -कुल का पराभव आपको अभीष्ट है ? " “ अरी शैलजा , तू इन देवों के पतित जीवन को देखती नहीं क्या ? निरन्तर सोमपान कर मत्त हो अप्सराओं के नृत्य - गान, भोग - संभोग में व्यस्त रहते हैं । आत्मसुख ही उनका चरम ध्येय है। इनसे भला कभी नृलोक की भलाई हो सकती है ? " " रावण ही विश्व की कौन - सी भलाई कर रहा है ? उनकी रक्ष- संस्कृति से आप सहमत हों , मैं नहीं हूं । क्यों भला वह देव - दैत्य , मानव-दानव सबकी संस्कृतियों को आक्रान्त करता है ? रक्त की शुद्धि मुझे मान्य है । मैं वंश- परम्परा पर श्रद्धा रखती हूं । आर्यों ने जो पितृ - संज्ञा स्थापित की है, विवाह मर्यादा बांधी है, सौर- चन्द्र -मण्डल स्थापित किए हैं , यज्ञविधि वेद- विहित की है, कृषि , वाणिज्य , राज्य - स्थापना , राज्य -व्यवस्था की जो मर्यादाएं बांधी हैं - उन्हीं ने तो नृवंश में सभ्यता और नीति की मर्यादित संस्कृति स्थापित की है । क्या रावण ने ऐसा किया है? वह दुरन्त तो अपने परशु ही को सर्वोपरि समझता है। युद्ध ही से सब बातों का निर्णय करता है । विचार - भावना उसमें कहां है ? जन , जनपद रक्षण वह कहां कर रहा है ? आप उस पर प्रसन्न हैं , मैं नहीं हूं। फिर वह पतित परस्त्री को बलात् - हरण करता है, यह तो अत्यन्त अमर्यादित है, असह्य है, गर्हित है। कैसे आप देव दैत्य - कुलपूज्य देवाधिदेव उसके इस दुष्कृत्य का समर्थन करते हैं ? " । ___ " देवगण ही कौन - सा सुकृत कर रहे हैं । इस पतित देवेन्द्र को ही ले लो । इसने माता को मारा , पिता की हत्या की , यतियों को कुत्तों को खिला दिया , चोरी की , भ्रूण - हत्या की , वृत्र और विश्वरूप का छल से वध किया , इसके अनाचारों का कुछ ठिकाना है! विष्णु की शह पाकर इस दुरात्मा ने महात्मा बलि को बांध सारा दैत्य - साम्राज्य छिन्न -भिन्न कर दिया । अब ये देव कौन - सा सुकर कार्य कर रहे हैं ? यह धूर्त वामदेव नारद, अरे, इलावर्त का वही भुक्खड़ ऋषि जिसे मैंने कैलास में आने की मनाही कर दी है, केवल मधु और सोम के लालच में उस पातकी इन्द्र की स्तुति की ऋचाएं रच रहा है ! ” ___ “ परन्तु ब्रम्हर्षि वशिष्ठ ने भी तो इन्द्र की स्तुति की ऋचाएं रची थीं , वे भी तो उसका स्तुति - गान करते हैं ? ” । __ “दासों के आश्रित हैं ना , इसी से। दिवोदास और सुदास पर देवेन्द्र और देवों का अनुग्रह हो , यही तो उनका ध्येय था । सो पूरा हुआ तो उसे छोड़ - छाड़ आर्यावर्त में चले